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प्रस्तुत कृति में आदरणीय लोढ़ाजी की दृष्टि में कायोत्सर्ग मात्र देह का शिथिलीकरण नहीं है। इसी प्रकार वह केवल चित्तवृत्ति की सजगता और निष्क्रियता की अवस्था भी नहीं है। वह आत्मपुरुषार्थ की स्थिति है, जिसमें साधक अपनी ममत्व बुद्धि का प्रहाण या निरसन करता है।
___ कायोत्सर्ग शब्द मूलतः दो शब्दों से बना है-काय+उत्सर्ग। किन्तु कायोत्सर्ग में भी 'काया' का त्याग सम्भव नहीं है। वस्तुतः काय के प्रति ममत्व वृत्ति का त्याग ही कायोत्सर्ग है। जैन परम्परा में 'व्युत्सर्ग' शब्द को अधिक व्यापक अर्थ में ग्रहण किया गया है। मूलतः व्युत्सर्ग के दो भेद हैं
1. द्रव्य व्युत्सर्ग और 2. भाव व्युत्सर्ग। वस्तुत: बाह्य वस्तुओं का त्याग द्रव्य व्युत्सर्ग है तो मनोवृत्तियों का त्याग भाव व्युत्सर्ग है। जैन आचार्यों ने द्रव्य व्युत्सर्ग के निम्न चार भेद माने हैं
____ 1. शरीर व्युत्सर्ग, 2. गण व्युत्सर्ग, 3. उपधि व्युत्सर्ग और 4. भक्त-पान व्युत्सर्ग।
ये सभी बाह्य वस्तुओं के प्रति ममत्व बुद्धि के त्याग रूप हैं, क्योंकि जब तक ममत्व वृत्ति का उच्छेद नहीं होता है, तब तक बाह्य पदार्थों के त्याग का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसलिये व्युत्सर्ग के मूल में तो कहीं-न-कहीं भाव या मनोवृत्ति का तत्त्व ही प्रमुख रहा हुआ है। भाव व्युत्सर्ग के तीन भेद किए जाते हैं-1. कषाय व्युत्सर्ग, 2. संसार व्युत्सर्ग और 3. कर्म व्युत्सर्ग। कषाय व्युत्सर्ग का अर्थ है-क्रोध, मान, माया एवं लोभ की वृत्तियों का त्याग। इसी प्रकार संसार व्युत्सर्ग का तात्पर्य है-नारक, देव, तिर्यंच और मनुष्य योनि के प्रति किसी प्रकार के निदान या आसक्ति अथवा उन गतियों के बन्धन के हेतुओं का त्याग। पुनः कर्म व्युत्सर्ग भी दो प्रकार से होता है-1. कर्मबन्ध के हेतुओं का त्याग और 2. पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा का प्रयत्न। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कर्म व्युत्सर्ग भी द्रव्य कर्मों की निर्जरा के रूप में जहाँ द्रव्य व्युत्सर्ग रूप होता है, वहीं राग-द्वेषादि की वृत्तियों के त्याग से भावात्मक या भाव रूप भी होता है-इस प्रकार हम देखते हैं कि व्युत्सर्ग शब्द व्यक्ति के राग-द्वेष का प्रहाण करके उसे वीतरागता की ओर ले जाता है। वस्तुतः कायोत्सर्ग देह में रहते हुए भी देहातीत होने की साधना है। कायोत्सर्ग की साधना से व्यक्ति देहातीत अवस्था की ओर ऊपर उठता है, अत: कायोत्सर्ग का स्थान ध्यान से ऊपर है। वह राग के प्रहाण और वीतरागता की उपलब्धि का साधन है। यह वीतरागता की उपलब्धि ही सम्पूर्ण जैन साधना का चरम
भूमिका 19
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