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________________ लक्ष्य है। ध्यान और कायोत्सर्ग का लक्ष्य भी वीतरागता की उपलब्धि है, इसलिये प्रस्तुत कृति में आदरणीय लोढ़ाजी ने यह कहा है कि वीतरागता ही दु:ख विमुक्ति का एकमात्र उपाय है, क्योंकि जब तक राग है तभी तक दुःख है। दुःख विमुक्ति हेतु राग का प्रहाण आवश्यक है। ध्यान वस्तुतः राग-द्वेष का प्रहाण है। साम्य योग की साधना भी उसी का दूसरा नाम है। जैन साधना साम्य योग या वीतरागता की साधना है। दूसरे शब्दों में कहें तो जैन साधना का अथ और इति, दोनों ही साम्य योग की इस साधना में ही हैं, जिसे पारम्परिक शब्दों में सामायिक की साधना कहा जाता है। भगवती सूत्र में कहा गया है कि आत्मा समत्व-स्वरूप है और समत्व की उपलब्धि ही आत्मा का साध्य है। हमारे चित्त का विचलन कषायों के कारण है, अत: चित्त की एकाग्रता तभी सम्भव है जब व्यक्ति कषायों के आवेग से ऊपर उठे। कषायों के आवेगों से ऊपर उठने का यह प्रयत्न ही लोढ़ाजी की दृष्टि में कायोत्सर्ग है। व्यक्ति का समत्व से विचलन क्रोध, मान, माया एवं लोभ रूप कषायजन्य आवेगों और राग-द्वेष की वृत्तियों के परिणामस्वरूप होता है और इन आवेगों का जन्म स्थान हमारा चित्त ही होता है। ध्यान साधना के प्राथमिक चरणों में आवेगों के निमित्त मिलने पर सर्वप्रथम उन निमित्तों के प्रति प्रतिक्रिया को रोकना होता है। ये प्रतिक्रियाएँ कायिक, वाचिक और मानसिक, तीनों ही हो सकती हैं। इसलिये कायोत्सर्ग की साधना का प्रारम्भ ही निम्न शब्दों के साथ होता है 'ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि' इस सूत्र का तात्पर्य है “मैं काया से स्थिर होकर वचन से मौन होकर एवं चित्तवृत्तियों की भागदौड़ को स्थिर कर 'पर' के प्रति अपनी ममत्व वृत्ति का विसर्जन करता हूँ।" वस्तुत: यह सूत्र वीतराग ध्यान साधना का आधारभूत सूत्र है। इसमें कायोत्सर्ग और ध्यान, दोनों ही समाहित हैं। प्रथम तीन सूत्रों का सम्बन्ध तीनों योगों की स्थिरता अर्थात् ध्यान से है जबकि अन्तिम सूत्र का सम्बन्ध ममत्व वृत्ति के विसर्जन से है अर्थात् कायोत्सर्ग से है। सामान्यतया अप्पाणं वोसिरामि का अर्थ आत्मा का विसर्जन न होकर आत्मभाव या अपनेपन का विसर्जन है, ममत्व वृत्ति का विसर्जन है। ममत्व वृत्ति का विसर्जन समत्व की साधना और वीतरागता की उपलब्धि का आवश्यक तत्त्व है। . प्रस्तुत कृति में आदरणीय लोढ़ाजी ने कायोत्सर्ग की जो चर्चा की है उसमें उन्होंने कायोत्सर्ग का लक्ष्य देहातीत होना या देहाभिमान से रहित होना बताया 20 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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