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________________ विचलन का मुख्य हेतु रहा हुआ है। यही कारण है कि आभ्यन्तर तपों की चर्चा करते हुए ध्यान के बाद ही कायोत्सर्ग को स्थान दिया गया है। ध्यान में आत्मसजगता के अभाव में यदि चित्तवृत्ति शुभ या अशुभ में प्रवहमान हो अथवा शुभ या अशुभ में एकाग्र हो तो आश्रव एवं बन्ध की सम्भावना बनी रहती है, जबकि कायोत्सर्ग सदैव ही संवर और निर्जरा का हेतु है। ध्यान की उच्चतम स्थितियों में जब साधक सजग या अप्रमत्त चेता या मात्र ज्ञाता-द्रष्टा भाव में होता है तभी वह संवर का हेतु बनता है, किन्तु निर्जरा तो तभी सम्भव है जब ध्यान कायोत्सर्गपूर्वक होता है।। जैन कर्म सिद्धान्त स्पष्ट रूप से यह बताता है कि अप्रमत्त संयत गुणस्थान से अग्रिम आध्यात्मिक ऊँचाइयों की ओर अग्रसर होते हुए साधक जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, उसके नवीन कर्मों के आश्रव रुकते जाते हैं। यहाँ तक कि ग्यारहवें गुणस्थान में मात्र सातावेदनीय कर्म का ही आश्रव रहता है। यद्यपि मोक्ष मार्ग की साधना में संवर की साधना आवश्यक है, किन्तु जब तक पूर्वकर्मों की निर्जरा न हो, वे सत्ता में बने रहते हैं और तब तक पतन की सम्भावना समाप्त नहीं होती। ध्यान मूलत: चित्तवृत्ति की एकाग्रता अथवा सजगता है। इससे अप्रमत्त साधक के आश्रव तो रुक सकते हैं, निर्जरा भी होती है, किन्तु पूर्वबद्ध कर्मों की सत्ता समाप्त नहीं होती है। कर्मों की सत्ता तभी समाप्त होती है जब निर्जरा हेतु कायोत्सर्ग करने का प्रयत्न और पुरुषार्थ हो।। ध्यान चित्तवृत्ति का संयम है, क्योंकि जैसे-जैसे आत्म-सजगता बढ़ती है, वैसे-वैसे मन निष्क्रिय होता जाता है। मन के निष्क्रिय होने से अन्य योगप्रवृत्तियाँ शिथिल होती जाती हैं, क्योंकि ज्ञाता-द्रष्टाभाव और कर्ता-भोक्ताभाव एक साथ सम्भव नहीं हैं, अतः ध्यान से जैसे-जैसे ज्ञाता-द्रष्टाभाव पुष्ट होता जाता है, वैसे-वैसे ध्यान कायोत्सर्ग में परिणत होता जाता है, जिससे बाह्य जगत् के उपादानों एवं शरीर के प्रति निर्ममत्व की साधना जगती जाती है, देहासक्ति टूटती जाती है, वैसे-वैसे सत्ता में रहे हुए कर्मदलिकों की निर्जरा की गति प्रतिसमय अनन्त गुणा होती जाती है। योगशास्त्र में जिन आठ योगांगों की चर्चा है उनमें ध्यान के बाद समाधि का क्रम है। वस्तुतः कायोत्सर्ग समाधि की साधना है। वह कर्मनिर्जरा हेतु आसक्ति या रागात्मकता के प्रहाण सम्बन्धी पुरुषार्थ की अवस्था है। कर्मों की स्थिति और उनका रस या अनुभाग कषाय या राग-द्वेष पर आधारित होता है और राग-द्वेष में भी द्वेष राग के आधार पर जीवित रहता है, अत: साधना का मूल लक्ष्य राग का प्रहाण और वीतरागता की उपलब्धि है। 18 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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