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भूमिका
प्रस्तुत कृति का वैशिष्ट्य
सामान्यतया ध्यान और कायोत्सर्ग को एक मान लिया जाता है । जैन परम्परा के अनेक ग्रन्थों में इन दोनों शब्दों का प्रयोग पर्यायवाची के रूप में होता रहा है, किन्तु यदि हम आगमिक प्रमाणों के आधार पर इस विषय की गम्भीर चर्चा करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ध्यान और कायोत्सर्ग अलग-अलग हैं। उत्तराध्ययन के तीसवें तप नामक अध्ययन में तप के दो भाग किए गए
1. बाह्य तप और 2. आभ्यन्तर तप ।
पुनः उसमें आभ्यन्तर तप के छः भेदों की चर्चा करते हुए ध्यान और कायोत्सर्ग को अलग-अलग बताया गया है ।
आदरणीय लोढ़ाज़ी ने प्रस्तुत कृति में ध्यान एवं कायोत्सर्ग के सहसम्बन्धों की जो चर्चा की है, वह महत्त्वपूर्ण है। ध्यान और कायोत्सर्ग में सबसे महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि ध्यान चित्तवृत्तियों की एकाग्रता एवं आत्म - सजगता की साधना का सूचक है, जबकि कायोत्सर्ग का सम्बन्ध देहातीत होने की साधना से है। ध्यान में चितवृत्ति की एकाग्रता और उसके प्रति सजग होने या उसका द्रष्टा होने की साधना की जाती है, जबकि कायोत्सर्ग में बाह्य विषयों और शरीर के प्रति निर्ममत्व भाव की साधना की जाती है। ध्यान में चित्तवृत्तियों के शुभ और अशुभ, दोनों दिशाओं में केन्द्रित होने की सम्भावना बनी रहती है, यही कारण है कि आगमों में आर्त और रौद्र को भी ध्यान कहा गया है, किन्तु चित्तवृत्ति का अशुभ योग में प्रवर्तन अर्थात् आर्त और रौद्र ध्यान में प्रवर्तन मूलत: देहासक्ति के कारण ही होता है। छठे गुणस्थान तक होने वाले आर्त ध्यान और पाँचवें गुणस्थान तक होने वाले रौद्र ध्यान देहासक्ति के कारण ही उत्पन्न होते हैं। अतः चित्तवृत्ति को अशुभ से विमुख करके शुभ या शुद्ध से जोड़ने के लिए ध्यान के साथ-साथ कायोत्सर्ग की साधना अपेक्षित है। ध्यान की स्थिरता भी तभी सम्भव है जब व्यक्ति देहासक्ति से ऊपर हो, क्योंकि देहभाव ही ध्यान के
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