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________________ कोई भी हो, उसमें शक्ति का व्यय होता है जिससे शक्तिहीनता व असमर्थता आती है। अतः यह अखण्ड नहीं हो सकती, जीवन नहीं हो सकती तथा यह 'पर' के आश्रय के बिना नहीं हो सकती, अतः इससे स्वाधीनता प्राप्त नहीं हो सकती। जो जीवन नहीं है, स्वाधीन नहीं है, उससे माँग की पूर्ति होना सम्भव नहीं है । अतः लक्ष्य की पूर्ति में प्रवृत्तिपरक, क्रियात्मक, श्रम-साध्य, साधना का महत्त्व नहीं है । श्रमयुक्त साधना अहंकार को सुरक्षित रखती है । अहंकार के विद्यमान रहते मुक्ति व माँग की पूर्ति सम्भव नहीं है । अतः मुक्ति प्राप्ति में विधेयात्मक साधना की अनिवार्यता अपेक्षित नहीं है । विषय सुखों का त्याग रूप निषेधात्मक साधना अनिवार्य है । विषय - सुख भोगने में प्रवृत्ति, श्रम, पराश्रय, परिस्थिति, देश, काल आदि अपेक्षित हैं । अतः इसकी पूर्ति हो ही, यह आवश्यक नहीं है परन्तु विषय-सुखों के त्याग में श्रम व पराश्रय की, किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, देश, काल आदि की लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं है । आवश्यकता है इनसे असंग होने की, इनके सुख के प्रलोभन के त्याग की । इनसे असंग होना ही कायोत्सर्ग है और कायोत्सर्ग का परिणाम मुक्ति है । विषय - सुखों का त्याग ही ध्यान या व्युत्सर्ग की साधना है। त्याग करने में मानव मात्र समर्थ व स्वाधीन है। अतः व्युत्सर्ग करने में मानव मात्र समर्थ व स्वाधीन है । व्युत्सर्ग किसी श्रमसाध्य उपाय से, क्रिया व प्रवृत्ति से नहीं होता है । श्रम, क्रिया, प्रवृत्ति 'पर' पर आश्रित हैं अतः ये स्व से विमुख करती हैं, स्वरूप में, स्वभाव में स्थित नहीं होने देती । अतः ध्यान-साधक को समस्त प्रवृत्तिपरक, श्रमसाध्य साधनाओं के कर्तृत्व को त्यागकर जो नैसर्गिक नियम से स्वतः मानसिक चिन्तन तथा शारीरिक क्रियाएँ होती हैं उनसे भी असंग रहना है अर्थात् उनके प्रति किसी प्रकार की प्रतिक्रिया -राग- द्वेष न करके समत्व में रहना है । अल्प से अल्प शक्ति, बुद्धि, योग्यतावाला मानव भी विषय सुखों की यथार्थता या निरर्थकता का अनुभव कर उसे त्यागने में, ध्यान व व्युत्सर्ग करने में, रागद्वेष रहित वीतराग होने में, मुक्त होने में समर्थ एवं स्वाधीन है । अतः वीतराग ध्यान-साधना से निराश होना भयंकर भूल है, अपना सर्वस्व खोना है, घोर अहित करना है । कायोत्सर्ग और मुक्ति प्राणी के जन्म का मुख्य कारण भोग है । भोग है अपने से भिन्न से जुड़कर सुख लेना । प्राणी मात्र जन्म लेते ही शरीर व इन्द्रिय के विषयों का भोग प्रारम्भ कायोत्सर्ग से मुक्ति की प्राप्ति 101 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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