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________________ करता है। फिर जैसे-जैसे इन्द्रियों की क्षमता व प्राणशक्ति में वृद्धि होती जाती है वैसे ही वैसे विषय-भोगों के सुखों में आसक्त होता जाता है। वह विषय-सुख एवं उनके साधन शरीर-इन्द्रिय आदि के अस्तित्व को ही अपना अस्तित्व मानता है। वह मानता है कि देह ही जीवन है। वह देह और इन्द्रियों से मिलने वाले भोगों के सुख को स्थायी, सुन्दर व सुखद मानता है और इनकी प्राप्ति के लिए तथा प्राप्त सामग्री को सुरक्षित रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है। यह स्थिति एककोशीय प्राणी से लेकर अर्थात् एकेन्द्रिय जीव से लेकर पंचेन्द्रिय एवं समनस्क, सभी जीवों की है। उनके जीवन का उद्देश्य विषय-सुखों का भोग ही है। भोग के साधन हैं-कान, नयन, घ्राण, रसना, स्पर्शन, मन, वचन, काया की शक्ति तथा आयुष्य व श्वासोच्छ्वास । इनके बल या शक्ति को 'प्राण' कहा है। इनमें बल नहीं रहने पर ये निष्प्राण-मृत हो जाते हैं। __ जो भोगमय जीवन बिताते है उनको ‘भोगी' कहा गया है। भोगी इन्द्रियों के अनुकूल-मनोज्ञ विषयों से प्राप्त सुख व उसके प्रति राग; तथा प्रतिकूल अमनोज्ञ विषयों के प्रभाव से होने वाले दुःख अर्थात् उसके प्रति द्वेष से आक्रान्त रहता है। राग-द्वेष में आबद्ध प्राणी सुख-दुःख का भोग करता ही रहता है। सुख-दुःख के भोग से उत्पन्न राग-द्वेष से नवीन संस्कारों का निर्माण सर्जन होता रहता है। इसे ही नवीन कर्मों का बंध होना कहा है। इस प्रकार साधारण प्राणी कर्मों के व संसार के प्रवाह में बहता रहता है, भ्रमण करता रहता है। जो मानव भोगी प्राणी के समान भौतिक–पौद्गलिक, ऐन्द्रिय सुखों में आबद्ध रहता है वह पशुतुल्य है। मानव वह. है जो इन्द्रिय-सुखों की यथार्थताअस्थायित्व, क्षणभंगुरता, अशुचित्व (सड़न-विध्वंसन-असुन्दर) तथा वियोग के दुःख का अनुभव कर इन्हें त्यागने का पुरुषार्थ करता है। विषय-सुखों के प्रति राग-द्वेष के अर्थात् कषायों के त्याग का पुरुषार्थ करने वाला ही पुरुष है, मानव है। इन्द्रिय-विषय सुख के राग को त्यागने पर शरीर एवं शरीर से सम्बन्धित संगठन, उपकरण एवं भोग्य सामग्री की दासता मिट जाती है। इन्द्रिय सुखोंविषयों की दासता मिटते ही संसार की दासता मिट जाती है, जिससे अलौकिक आनन्द का अनुभव होता है। इन्द्रियों की दासता मिटने पर कषाय व करने का राग (कर्तृत्व भाव) मिट जाता है और करने का राग मिटने पर कर्म से असंगता हो जाती है अर्थात् कर्म का व्युत्सर्ग हो जाता है। व्युत्सर्ग होना दासता, पराधीनता के बंधन का मिट जाना है जिससे ईश्वरत्व का, स्वाधीनता का तथा मुक्ति का अनुभव होता है। यह अनुभव स्वाभाविक होने से इसका अंत या नाश 102 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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