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________________ आदि दोषों या विपाकों का उदय होता है जो दुःख रूप ही हैं। दोषी या दुःखी होना कोई नहीं चाहता है। अत: जब ध्याता को लोक संस्थान पर दृष्टिपात या विचार करने से लोक में सर्वत्र व्याप्त दु:खद रूप का बोध हो जाता है तो वह लोकातीत, अलौकिक (आध्यात्मिक) अक्षय, अखण्ड, अनन्त, आनन्द के क्षेत्र में प्रवेश के लिये चिंतन करता है। संस्थान विचय से धर्म की उपलब्धि होने से इसे धर्म ध्यान का अंग माना गया है, जो समीचीन ही है। लोक संस्थान पर विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि संसार के सारे ही प्राणी संसार चक्र में भव भ्रमण कर रहे हैं। कभी वे शुभ कार्यों के विपाक से ऊर्ध्वगमन कर ऊर्ध्वलोक में देव बनते हैं। कभी अशुभ कर्मों के विपाक से अधोगति को प्राप्त हो अधोलोक में नारक बनते हैं। कभी शुभाशुभ कर्मों के विपाक से मध्य लोक में मनुष्य, तिर्यंच बनते हैं। इस प्रकार सर्व जीव अनंतकाल से लोक के ऊर्ध्वभाग से अधोभाग पर्यंत चार गति, चौरासी लक्ष योनियों में उसी प्रकार भ्रमण कर रहे हैं। ग्रन्थकार श्री जिनभद्र क्षमाश्रमण ने संसार-सागर के दुःख स्वरूप को रूपक के माध्यम से स्पष्ट करते हुए संसार-सागर से पार जाने का प्रशस्त मार्ग बताया है कि संसार के दुःखों का चिन्तन करे और धर्म ध्यान में स्थिर हो समुद्र में रहने वाली अपार जलराशि के समान यह जीव अपने-अपने कर्मों के उदयवश इस अनादि-अनन्त संसार में जन्म-मरण करता रहता है। जल का मूल पाताल है तथैव जन्म-मरण का मूल कषाय है। जल में स्थित भयङ्कर जीव-जन्तुओं, मछली, मगरमच्छों की तरह जीवन और मृत्यु के मध्य अनेक भयङ्कर कष्ट और विपदाएँ विद्यमान हैं। समुद्री भंवर में जिस प्रकार सब-कुछ चक्कर में फँस जाता है, नष्ट हो जाता है, तदैव मोह के कारण जीव इस संसार के चक्र में फँस जाता है। जिस प्रकार समुद्री तूफान से प्रेरित तरंगें प्रलयकारी होती हैं तथैव अज्ञान से प्रेरित राग-द्वेष की तरंगें जीव के स्वभाव का घात कर देती हैं। ग्रन्थकार ऐसे आर-पार-रहित असीम सागर रूपी संसार के दुःख के स्वरूप का चिन्तन करने की प्रेरणा देते हैं जिससे दु:खों के कारण को जानकर उनसे मुक्त हो सकें। ___संसार-चक्र या भव-भ्रमण के दुःखों से बचना है तो संसरणशील लौकिक पदार्थों के संसर्ग से बचना ही होगा, नि:संग होना ही होगा। इसमें संस्थान विचय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संस्थान विचय से ध्याता को पूर्व में भोगे दुःख स्थानों की वेदना की स्मृति होती है जिससे उसे लोक से उपरति या विरति होती है तथा पर-पदार्थों के संग से उत्पन्न हुई पराधीनता से बचने और मुक्त होने की प्रेरणा ध्यानशतक 95 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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