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अण्णाण - मारुएरियसंजोग - विजोगवीइसंताणं ।
संसार-सागरमणोरपारमसुहं विचिंतेज्जा ।। 58 ।। अर्हत जिनदेव के कहे हए द्रव्यों के लक्षण, संस्थान, आसन (आधार या रहने का स्थान), विधान (जीव-पुदन्तर आदि का भेद), परिमाण, उत्पाद, स्थिति (ध्रौव्य), व्यय (नाश) आदि पर्यायों का ध्याता को चिन्तन करना चाहिए। जिन द्वारा लोक पाँच अस्तिकायमय अनादि, अनन्त (आदि-अन्त रहित), नामादि निक्षेपों के भेद से अधो-लोक, तिर्यंचलोक और ऊर्ध्वलोक इन तीनों भेदों में विभक्त हैं। लोक के इस संस्थान का ध्याता को चिंतन न करना चाहिए। पृथ्वी, वलय, घनोदक द्वीप, सागर, नरक, विमान, भवन आदि के संस्थानों का चिन्तन करना चाहिए एवं आकाश आदि पर प्रतिष्ठित नियत लोक स्थिति के विधान प्रकार का भी चिन्तन करना चाहिए।
जीव उपयोग लक्षण वाला है, अनादि-अनन्त है, शरीर से भिन्न है, अरूपी है और स्वयं के कर्मों का कर्ता-भोक्ता है; ऐसे उस जीव के अपने कर्मों से उत्पन्न यह संसार-सागर जन्म-मरण के जल से भरपूर, कषाय, क्रोध, मान आदि सैकड़ों व्यसन (दु:ख) रूपी श्वापद मत्स्यों से युक्त, मोह रूपी आवर्त से युक्त अत्यन्त भयंकर, अज्ञान रूपी वायु से प्रेरित संयोग-वियोग रूपी तरंगों की सन्तति (प्रवाह) से युक्त, आर-पार रहित (अनादि-अनन्त) और अशुभ हैऐसा चिन्तन करना चाहिए।
व्याख्या :
धर्म ध्यान का चौथा भेद ‘संस्थान विचय' है। उत्पत्ति-स्थिति-व्यय लक्षण युक्त पदार्थों को धारण करने वाला तथा आदि-अंत रहित, जो लोक है उसके . स्वरूप का चिंतन करना ‘संस्थान विचय' है।
जब लोक के संस्थान पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से विचार किया जाता है तो यह स्पष्ट विदित होता है कि सारा ही लोक जीव और अजीव, इन दो द्रव्यों से भरा हुआ है। इसमें स्थित अनंतानंत जीव अनन्तकाल से जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, रूपी दुःख भोग रहे हैं। मुक्त जीवों के अतिरिक्त कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है जो सर्वथा दु:ख रहित या सुखी हो। इससे यह निष्कर्ष भी सामने आता है कि संसारी या लोक में अनुरक्त जीव कभी भी दु:खरहित सुख प्राप्त नहीं कर सकते हैं। कारण कि वे सुख के लिये जिन लौकिक या पर-पदार्थों का आश्रय लेते हैं, पर-पदार्थ जड़-नश्वर, संसरणशील स्वभाव वाले हैं। अत: पर-पदार्थों के आश्रय के परिणामस्वरूप पराधीनता, जड़ता, नश्वरता, विनाश, अभाव, अतृप्ति
94 ध्यानशतक
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