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करते हैं । राग-द्वेष आदि विषय-विकारों के परिणामस्वरूप प्राणी को आकुलताव्याकुलता ही मिलती है। हिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह, कलह आदि पापों के विपाक स्वरूप घोर वेदनाएँ, नारकीय यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, सम्यक्त्व, संयम, तप आदि के परिणामस्वरूप वास्तविक शांति व सच्चा आनंद मिलते हैं । फलतः वह धर्म या स्वानुभव से आविर्भूत आनंद की तुलना में विषय भोगों के सुख को दुःख रूप समझता है । अतः वह विषय सुखों की आकांक्षा नहीं रखता है अपितु शुभाशुभ कर्मों के विपाक सुख-दुःख से मुक्त अवस्था, स्वभाव या धर्म को ही इष्ट समझता है । जो साधना या धर्म का लक्ष्य है ।
विभाव या परभाव विषय-भोगों में रमण करना व चिंतन करना आर्त- रौद्र ध्यान है। परभाव में रमणता दूर करने का उपाय है परभाव के दुष्परिणामों से परिचित होना । परभाव से, पर-पदार्थों की इच्छा से, 'पर में सुख-दुःख देने की शक्ति है', ऐसी मान्यता से प्राणी परर-पदार्थों के आधीन अर्थात् पराधीन होता है । पर - पदार्थ जड़ हैं, अतः जड़ के संयोग से जड़ता आती है। पर पदार्थ नश्वर व परिवर्तनशील हैं अतः उनके संयोग से जन्म-मरण रूप परिवर्तन या परिणमनशीलता आती है । पराधीनता, जड़ता, नश्वरता में दुःख ही है । अतः परभाव या विभाव के विपाक का विचार कर उससे मुक्ति पाने का उपाय सोचना 'विपाकविचय' है । विपाक विचय से स्वभाव रूप धर्म की प्राप्ति होती है अतः यह धर्म ध्यान है ।
4 संस्थानविचय का स्वरूप निरूपण करते हैं:
जिणदेसियाइ लक्खण-संठाणा ऽऽसण- विहाण - माणाइं ।
उप्पायइिभंगाइ पज्जवा जे य दव्वाणं 1153 ।
लोगमणाइणिहणं
पंचत्थिकायमइयं
णामाइभेयविहियं
जिणक्खायं ।
तिबिहमहोलोयभेयाई । 154 ।।
खिड़ - वलय-दीव - सागर-नरय विमाण-भवणाइसठाणं ।
वोमाइपइट्ठाणं
निययं
उवओगलक्खणमणाइनिहणमत्थंतरं
जीवमरूविं कारिं भोयं च
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लोगट्ठिइविहाणं ।। 55 ।।
सराओ ।
कम्मस्स ।।56 ।।
सयस्स
तस्स य सकम्मजणियं जम्माइजलं वसणसयसावयमणं
मोहावत्तं
कसायपायालं । महाभीमं ।157 ।
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ध्यानशतक 93
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