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उत्पत्ति का कारण शरीर में विजातीय द्रव्यों का प्रवेश होना, वात-पित्त-कफ का विषम होना, धातु का विकृत होना है; उसी प्रकार आत्मा में विकारों का उदय दोष है। आत्मा में विकारों या दोषों की उत्पत्ति का कारण आत्मा का विजातीय द्रव्यों के संग से वैभाविक अवस्था को प्राप्त होना, समभाव को छोड़ विषमभाव को ग्रहण करना है। दोषों से छूटने का उपाय विजातीय के संग से व विषम भाव से बचना है। विजातीय द्रव्यों के संग व विषमभाव से बचने की प्रेरणा का उदय तब ही होता है जब उनसे उत्पन्न दोषों व दु:खों का ज्ञान हो। तात्पर्य यह है कि विजातीय द्रव्यों से छूटने व स्वभाव रूप धर्म की प्राप्ति में दोषों के ज्ञान व विचार का बड़ा महत्त्व है। • विपाकविचय का निरूपण किया जा रहा है:पयइ-ठिइ-पएसा ऽणुभावभिन्नं सुहासुहविहत्तं ।
जोगाणुभावजणियं कम्मविवागं विचिंतेज्जा ।। 52 ।। जो प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग-इन चार भेदों से भिन्न है, जो शुभ भी होता है और अशुभ भी होता है तथा जो योग (मन, वचन व काया की प्रवृत्ति) और अनुभाव (मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद और कषाय) से उत्पन्न होता है ऐसे कर्म-विपाक का चिन्तन करना चाहिए, जिससे धर्म ध्यान में स्थित हो सके। यह धर्म ध्यान का 'विपाक विचय' नामक तीसरा भेद (प्रकार) है।
व्याख्या :
दोष या कर्म के परिपाक से होने वाले फल को विपाक कहते हैं। इस विपाक, फल या परिणाम पर विचार करना, 'विपाक विचय है। जिस प्रकार जो विष के परिणाम 'मरण' को जानता है वह विष से बचता है। जो आग के परिणाम 'दहन' को जानता है वह आग से दूर रहता है। उसी प्रकार जो कर्म रूप दोषों के विपाक से होने वाले अनिष्ट व दुःखद परिणामों को जानता है, वह दोषोत्पत्ति के कारणों से बचता व दूर रहता है तथा पूर्वसंचित दोषों (कर्मों) के निवारण का प्रयत्न करता है। दोषों से मुक्ति पाने का यह प्रयत्न ही साधना या धर्म है। तात्पर्य यह है कि दोषों के निवारण से होने वाली मुक्ति प्राप्ति में दोषों के विपाक के ज्ञान या विचार का बड़ा महत्त्व है।
यह नियम है कि जैसा बीज बोया जाता है वैसा ही विपाक होता है, फल आता है। मधुर वस्तु के बीज से मधुर फल और कटु वस्तु के बीज से कटु फल मिलता है। मिथ्यात्व, अविरति आदि आस्रव तथा हिंसा, झूठ आदि पाप दोष हैं। दोषों के फल दूषित ही होते हैं। दूषित फल जीवन में कड़वाहट व दुःख उत्पन्न
92 ध्यानशतक
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