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व्याख्या :
वीतराग की आज्ञा श्रुतज्ञान रूप होती है। श्रुतज्ञान स्वभाव का ज्ञान एवं स्वाभाविक व स्वयंसिद्ध ज्ञान होने से सनातन सत्य होता है, वह कभी नहीं बदलता है, अतः अन्यथा एवं अयथार्थ नहीं हो सकता है। • अपायविचय को निरूपण करते हैं :
रागद्दोस-कसाया ऽऽसवादिकिरियासु वट्टमाणाणं।
इह-परलोयावाओ झाइज्जा वज्जपरिवज्जी ।। 51 ।। वर्त्यपरिवअर्थात् हेय का त्यागी अप्रमत्त मुनि राग, द्वेष, कषाय और आस्रव आदि क्रियाओं में प्रवर्तमान व्यक्तियों के इस लोक और परलोक सम्बन्धी दोषों व दु:खों का चिन्तन करें। यह धर्म्य ध्यान, जिससे धर्म ध्यान में स्थित हो सके, का 'अपायविचय' नामक द्वितीय प्रकार है।
व्याख्या:
धर्म ध्यान का दूसरा भेद अपाय विचय है। अपाय का अर्थ है दोष, विचय का अर्थ है विचार अर्थात् दोषों पर विचार करना अपाय विचय है। आज्ञा या धर्म का पालन न करने पर दोषों की उत्पत्ति होती है जो समस्त बंधन, भव-भ्रमण व दुःखों का कारण है। अत: बन्धन, भव-भ्रमण व दुःखों से मुक्ति तभी सम्भव है जब दोषों का निवारण व धर्म का धारण हो । दोषों का निवारण तभी सम्भव है जब दोषों का यथार्थ बोध हो। कारण कि दोष कैसा भी हो, वह प्राणी के लिये अहितकारी, अकल्याणकारी, अमंगलकारी, अनिष्टकारी होता है, जो किसी को भी इष्ट नहीं है। अतः दोषों के यथार्थ बोध से साधक की दोषों के प्रति अरुचि होती है, वह उनसे मुक्ति पाना चाहता है तथा उनकी पुनरावृत्ति नहीं करता है। दोषों की पुनरावृत्ति व उत्पत्ति न होने से निर्दोषता की अभिव्यक्ति होती है, यही साधक का परमधर्म है। यह स्पष्ट है कि दोषों का विचार या बोध धर्म की उपलब्धि में सहायक है, इसी कारण अपायविचय धर्म ध्यान का एक अंग है।
स्वभाव व गुण को उत्पन्न नहीं करना पड़ता, दोषों के दूर होने पर गुण स्वतः प्रगट या आविर्भूत हो जाते हैं, जैसे जल के उष्णता रूप विभाव या दोष के दूर होने पर जल अपने स्वाभाविक गुण शीतलता को स्वतः प्राप्त हो जाता है। अतः आत्मा के स्वाभाविक गुण रूप धर्म की अभिव्यक्ति के लिये दोषों को दूर करना आवश्यक है।
जिस प्रकार शरीर के विकारों का उदय रोग या दोष है। शरीर में विकारों की
ध्यानशतक 91
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