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धर्म दो प्रकार का है-श्रुतधर्म और चारित्र धर्म । वीतराग देव द्वारा प्ररूपित उपदेश या आदेश श्रुत धर्म है और तदनुसार चलना चारित्र धर्म है। श्रुत धर्म अर्थात् ज्ञान का आलोक पथ-प्रदर्शन का कार्य करता है और चारित्र धर्म उस पर चरण आगे बढ़ाने रूप आचरण का कार्य करता है। जिस प्रकार आलोक के अभाव में पथ दिखाई नहीं देता है। अतः पथिक पथ-भ्रष्ट हो इधर-उधर भटकता, ठोकरें खाता, गर्त में गिरता व अनेक आपत्तियों से आक्रान्त होता है तथा अपने गन्तव्य स्थान को नहीं पहुंच पाता है। इसी प्रकार श्रुत ज्ञान के आलोक के अभाव में अज्ञानांधकार में साधक पथ-भ्रष्ट हो इधर-उधर भटकता, विषय-प्रलोभनों की ठोकरें खाता, कषाय के गर्त में गिरता व अनेक विभ्रमों से आक्रांत होता है तथा अपने गन्तव्य स्थान मुक्ति या सिद्धि को प्राप्त करने में असफल रहता है।
श्रुत धर्म के अभाव में चारित्र धर्म का पालन सर्वथा असम्भव है। अत: साधक के लिये सर्वप्रथम श्रुत धर्म रूप आज्ञा का चिंतन-मनन आवश्यक है। यह साधना का प्रथम कदम है। इसके पश्चात् ही साधना का अगला कदम उठाया जा सकता है, अतः धर्म ध्यान में इस आज्ञाविचय को प्रथम स्थान दिया गया है। • जिनाज्ञा की यथार्थता प्रस्तुत करते हैं:
तत्थ य मइदोब्बलेणं तव्विहायरियविरहओ वावि। णेयगहणत्तणेण य णाणावरणोदएणं च ।।48 ।। हेऊदाहरणासंभवे य सइ सुठु जं न बुज्झज्जा। सव्वण्णुमयमवितहं तहावि तं चिंतए मइमं ।।49 ।। अणुवकयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जगप्पवरा। जियराग-दोस-मोहा य णण्णहावादिणो तेणं ।। 50 ।। उपर्युक्त आज्ञा-जिनवाणी का निम्नलिखित कारणों से सम्यक् अवबोध नहीं होता है-(1) मति की दुर्बलता, (2) अध्यात्म विद्या के जानकार आचार्यों का अभाव, (3) ज्ञेय की गहनता, (4) ज्ञान के आवरण करने वाले कर्म की तीव्रता, (5) हेतु का अभाव तथा (6) उदाहरण सम्भव न होना। इन कारणों से सर्वज्ञ प्रणीत अवितथ वचन का सम्यक् अवबोध नहीं होता। फिर भी बुद्धिमान् ध्याता, 'सर्वज्ञ प्रतिपादित मत सत्य है', ऐसा समझे क्योंकि जगत् में श्रेष्ठ जिनभगवान्, अनुपकारी जीवों पर भी अनुग्रह करने में तत्पर रहते हैं और उन्होंने राग, द्वेष और मोह पर विजय पा ली है, इसलिए वे अन्यथावादी (एवं अयथार्थवादी) नहीं हो सकते।
90 ध्यानशतक
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