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जगती है । फलतः वह पर-पदार्थों का संग या उनसे संबंध-विच्छेद करने का प्रयत्न करता है । इससे आत्मा का विभाव रूप अधर्म हटकर स्वभाव रूप धर्म की उपलब्धि होती है । धर्मप्राप्ति में कारणभूत होने से संस्थानविचय को धर्म ध्यान में स्थान दिया गया है।
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अभिप्राय यह है कि लोक के संस्थान या स्वरूप के विचार से लौकिक वस्तुओं तथा उनके संबंध के परिणाम से होने वाले सुख-दुःखात्मक वेदन का यथार्थ बोध होता है । दुःख किसी को भी इष्ट नहीं है । अतः ध्याता संस्थान विचय ध्यान के बल से दुःखों के मूल कारण 'वस्तुओं के संबंध' का विच्छेद करता है । लौकिक वस्तुओं से संबंध-विच्छेद होने से आत्मा को अलौकिक धर्म की उपलब्धि होती है ।
रत्नत्रय से संसार - समुद्र को पार करना सम्भव है, ऐसा दर्शाते हैं:तस्य संतरणसहं सम्मद्दंसण - सुबंधणमणग्धं ।
चारित्तमयं महापोयं । 159 । तव-पवणाइद्धजइणतरवेगं ।
विसोत्तियावीइनिक्खोभं 1160 ।।
णाणमयकण्णधारं
संवरकयनिच्छिइं
वेरग्गमग्गपडियं
आरोढुं मुणि वणिया महग्घसीलंग - रयणपडिपुन्नं ।
जह तं निव्वाणपुरं सिग्घमविग्घेण पावंति ।। 61 ।।
ऐसे संसार - सागर को पार करने में समर्थ वह चारित्र रूपी महान् नौका सम्यग्दर्शन के सुबन्धन से युक्त, अमूल्य, ज्ञानरूपी नाविक से सहित है । संवर युक्त होने से छिद्ररहित, तप रूपी पवन से प्रेरित होकर तीव्र गति से चलने वाली, वैराग्य मार्ग पर बढ़ने वाली और दुर्ध्यान की लहरों से भी निष्प्रकम्प है। मुनि रूपी वणिक् व्यापारी महार्घ्य — बहुमूल्य शीलांगरत्नों से परिपूर्ण उस नौका पर आरूढ़ होकर शीघ्र ही, बिना किसी बाधा के, उस निर्वाणपुर को पा लेते हैं ।
व्याख्या :
ऐसे संसार-: र- सागर से पार उतारने में चारित्र पालन रूपी महापोत (नाव) समर्थ है। जो प्रशस्त ज्ञान रूपी कर्णधार वाली है, जो सम्यग्दर्शन के सुबन्धनों से युक्त है; जो संवरयुक्त होने से छिद्र से रहित है । तप रूप पवन से प्रेरित होने से तीव्र वेग से गमन करने वाली है, वैराग्य रूपी मार्ग में पड़ी हुई है तथा विस्रोतसिका (दुर्ध्यान) रूपी वीचिका के द्वारा भी निष्प्रकम्प है, अर्थात् अपध्यान
96 ध्यानशतक
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