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________________ अतिसंक्लिष्ट नहीं होते हैं, इनसे दूसरे जीवों को कष्ट नहीं होता है जिससे वे नरकगति के कारण नहीं होकर तिर्यंच गति के कारण होते हैं। जबकि रौद्र ध्यान में राग, द्वेष, मोह भयंकर आकुलता वाले एवं क्रूरता के परिणामवाले होते हैं । इनका सम्बन्ध दूसरे जीवों की हिंसा व कष्ट पहँचाने से होता है। ये परिणाम भयंकर संघर्ष एवं द्वन्द्व के नारकीय दु:ख देने वाले होते हैं, अर्थात् नरकगति के हेतु होते हैं। • रौद्र ध्यान की लेश्याओं का निरूपण करते हुए कहते हैं: कावोय-नीला-काला लेसाओ तिव्वसंकलिट्ठाओ। रोद्दज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामजणियाओ ।। 25 ।। रौद्र ध्यान के समय व्यक्ति की कापोत, नील व कृष्ण-ये तीनों लेश्याएँ अत्यन्त संक्लिष्ट होती हैं। ये लेश्याएँ कर्मपरिणामजनित होती हैं। व्याख्या : कापोत-नील व कृष्ण–ये तीनों अशुभ लेश्याएँ रौद्र ध्यान में होती हैं और ये ही तीनों अशुभ लेश्याएँ आर्त ध्यान में भी होती हैं। परन्तु आर्त ध्यान में तीव्र संक्लिष्ट परिणामवाली नहीं होती हैं जबकि रौद्र ध्यान में अतितीव्र संक्लिष्ट परिणामवाली होती हैं। • रौद्र ध्यानी जीव के दोषों का निरूपण करते हुए कहते हैं:लिंगाइं तस्स उस्सण्ण-बहुल-नाणाविहाऽऽमरणदोसा। तेसिं चिय हिंसाइसु बाहिरकरणोवउत्तस्स ।। 26 ।। जो इस हिंसा, मृषावाद आदि (रौद्र ध्यान के चारों प्रकारों में) वाणी और शरीर से संलग्न है, उस रौद्र ध्यानी के उत्सन्न, बहुल, नानाविध, आमरण दोष-ये चार लक्षण (पहचान) हैं। रौद्र ध्यान के हिंसा आदि चार प्रकारों में से किसी एक में अत्यन्त आसक्ति से प्रवृत्त होना उत्सन्नदोष है। रौद्र ध्यान के सभी प्रकारों में प्रवृत्त होना बहुलदोष है। चमड़ी उधेड़ने, आँखें निकालने आदि क्रूर हिंसात्मक कार्यों में बार-बार प्रवृत्त होना नानाविधदोष है। हिंसा आदि करने में मृत्युपर्यन्त अनुताप न होना आमरण दोष है। व्याख्या : रौद्र ध्यान के चार लक्षण या पहचान हैं--- 1. उत्सन्न-दोष-रौद्र ध्यानी विषय-भोग, वासना, कामना, राग, द्वेष आदि दोषों से खिन्न रहता है, उसे दूसरों को प्रसन्न देखकर भी प्रसन्नता नहीं 76 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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