SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • रौद्र ध्यान निन्दनीय है, ऐसा निरूपण करते हैं:इय करण - कारणाणुमइविसयमणुचिंतणं चउब्भेयं । अविरय - देसासंजयजणमणसंसेवियमहण्णं ।।23।। इस प्रकार रौद्र ध्यान के चार भेद हैं—हिंसानुबंधी, मृषानुबंधी, स्तेयानुबंधी, विषयसंरक्षणानुबंधी। इनको स्वयं करना, करवाना व इनका अनुमोदन करना तथा उसी विषय का पर्यालोचन करना रौद्र ध्यान है। यह अश्रेयस्कर ध्यान अविरत और देशसंयत (श्रावकों) के होता है। व्याख्या : पूर्वोक्त गाथा 18 में जो आर्त ध्यान के स्वामी कहे हैं वे ही रौद्र ध्यान के स्वामी भी हैं। अन्तर केवल इतना है कि आर्त ध्यान की सीमा स्वयं के विषयभोग के सुखासक्ति से ही है। यह प्रमत्त साधु के भी हो सकता है जबकि रौद्र ध्यान किसी भी साधु के नहीं होता है। इसका कारण यह है कि रौद्र ध्यान का सम्बन्ध हिंसा, झूठ, चोरी आदि दुष्प्रवृत्तियों से है। साधु पंचमहाव्रतधारी होता है, उसके हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग होता है। अतः प्रमत्त संयत के रौद्र ध्यान नहीं होता है। अविरत और देशसंयमी के आर्त ध्यान होता है और इनके रौद्र ध्यान भी होता है। अन्तर इतना ही है कि आर्त ध्यान में अतिसंक्लिष्ट विकार नहीं होते, परन्तु रौद्र ध्यानी के अतिसंक्लिष्ट विकार होते हैं। • रौद्र ध्यान को नरकगति का कारण बताया गया है: एयं चउव्विहं राग-दोष-मोहाउलस्स जीवस्स । रोद्दज्झाणं संसारवद्धणं नरयगाइमूलं ।। 24 ।। राग, द्वेष और मोह से आकुल जीव के चार प्रकार का रौद्र ध्यान होता है। यह ध्यान संसार (जन्म-मरण) की वृद्धि करने वाला और नरकगति का मूल (बीज) है। व्याख्या : पूर्वगाथा 13 में कहा है कि राग, द्वेष और मोह जो संसार को बढ़ाने वाले हैं, ये आर्त ध्यानी के होते हैं और इस गाथा में इन्हीं को रौद्र ध्यानी के होना कहा है। जिज्ञासा होती है कि फिर दोनों में अन्तर क्या है ? तो कहना होगा कि आर्त ध्यानी के राग, द्वेष, मोह विषयों की भोगासक्ति से सम्बन्धित होते हैं। अत: ध्यानशतक 75 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy