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________________ वस्तुएँ खाने को मिलने पर तथा त्वचा को अप्रिय लगने वाला स्पर्श होने पर अप्रिय लगने वाला शब्द, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श का संयोग होने पर द्वेष भाव से उनको दूर करने के लिए चिन्तित होना तथा भविष्य में कभी पुनः संयोग न हो जाय, इस चिन्ता में डूबे रहना प्रथम प्रकार का आर्त ध्यान है। द्वेष से मलिनता को प्राप्त हए प्राणी के अमनोज्ञ (अनिष्ट) शब्दादिरूप पाँचों इन्द्रिय के विषयों और उनकी आधारभूत सामग्री के विषय में जो उनके वियोग की अत्यधिक चिन्ता होती है तथा भविष्य में उनका फिर से संयोग न हो, ऐसा अध्यवसान होना अमनोज्ञ आर्त ध्यान माना गया है। 'विषीदन्ति एतेषु सक्ताः प्राणिनः इति विषयाः' इस निरुक्ति के अनुसार जिनमें आसक्त होकर प्राणी दुःख को प्राप्त होते हैं, उन्हें विषय कहा जाता है। अथवा जो यथायोग्य श्रोत्रादि इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य शब्द, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि हैं उन्हें विषय जानना चाहिये। उन अनिष्ट, अप्रिय विषयों और उनकी आधारभूत वस्तुओं का यदि वर्तमान में संयोग है तो उनके वियोग के सम्बन्ध में सतत यह विचार करना कि किस प्रकार से इनका मुझसे वियोग होगा तथा उनका वियोग हो जाने पर भविष्य में कभी उनका फिर से संयोग न हो, इस प्रकार का चिन्तन करना तथा इसके अतिरिक्त भूतकाल में यदि उनका वियोग हुआ है अथवा संयोग ही नहीं हुआ है तो उसे बहुत अच्छा मानना, वह अनिष्ट संयोग अमनोज्ञ आर्त-ध्यान है। • आर्त ध्यान के द्वितीय भेद आतुर चिन्ता आर्त ध्यान का निरूपण करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं: तह सूल-सीसरोगाइवेयणाए विजोगपणिहाणं। तदसंपओगचिंता तप्पडियाराउलमणस्स ।।7।। रोग को दूर करने के लिए आकुल मन वाले का शूल, मस्तक के रोगादि की वेदना उत्पन्न होने पर उनके वियोग के लिए चिन्तन करना, उनके प्रतिकार (चिकित्सा) के लिए आकुल-व्याकुल होना तथा वे पुनः प्राप्त न हों, इस चिन्तन में लीन होना, यह दूसरे प्रकार का आर्त ध्यान है। व्याख्या : शूल व शिरोरोग आदि की पीड़ा के होने पर तथा प्रतिकूल परिस्थिति उपस्थित होने पर उसके प्रतिकार के लिये व्याकुल मन का दृढ़ अध्यवसान (निरन्तर चिन्तन) होता है तथा उक्त वेदना के किसी प्रकार से नष्ट हो जाने पर 62 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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