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________________ होने पर और अनिच्छित की प्राप्ति होने पर उनके प्रति द्वेष के निरन्तर बने रहने से जो आकुलता/व्याकुलता होती रहती है वह आर्त ध्यान है। ___ हिंसा आदि क्रूरतायुक्त प्रवृत्ति में एकाग्रता रौद्र ध्यान है। विषय सुख में रत जीव आसक्तिवश हिंसा-झूठ-चोरी करता हुआ स्व तथा पर के हित-अहित के विवेक को खो देता है और क्रूर हो जाता है तो वह रौद्र ध्यान में रत कहलाता है। जीव आर्त ध्यान तथा रौद्र ध्यान के कारण संसार में परिभ्रमण करता है। मिथ्यात्व, अविरक्ति और कषाय अन्त करना तब तक सम्भव नहीं होता जब तक आर्त और रौद्र ध्यान की स्थिति रहती है। आर्त और रौद्र ध्यान से कर्मों का आस्रव होता है, अतः इनके प्रतिपक्षी धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान को निर्वाण में साधनभूत कहा है। निर्वाण की उपलब्धि संवर एवं निर्जरापूर्वक होती है तथा धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान से कर्म के आवरण का क्षय होता है, अत: धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान को शुभ ध्यान कहा जाता है। श्रुत और चारित्र अर्थात् संयम धर्म से युक्त अध्यवसान धर्म ध्यान है तथा कर्म कलुष एवं शोक को नष्ट करने ' वाले ध्यान को शुक्ल ध्यान कहा जाता है। शुक्ल ध्यान से कषाय के उपरत हो जाने पर वीतरागता प्रकट होती है। इसीलिये धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान को ग्रन्थकार ने निर्वाण में सहायक माना है। आर्त ध्यान • आर्त ध्यान के प्रमुख चार प्रकार माने जाते हैं। उनके निरूपणार्थ ग्रन्थकार प्रथम अनिष्ट संयोग आर्त ध्यान का निरूपण करते हैं: अमणुण्णाणं सद्दाइविसयवत्थूण दोसमइलस्स। धणियं विओगचिंतणमसंपओगाणुसरणं च ।। 6 ।। व्याख्या : द्वेष से मलिन होकर अमनोज्ञ शब्द आदि इन्द्रिय विषयों के वियोग के लिए अत्यन्त चिन्ता करना तथा उनकी पुनः प्राप्ति न हो इसका निरन्तर अनुस्मरण करना आर्त ध्यान का प्रथम प्रकार है। अमनोज्ञ-अवांछित शब्दादि विषयों और वस्तुओं से पिण्ड छुड़ाने रूपी अत्यधिक चिन्ता और पुनः उनका संयोग नहीं होवे, ऐसी अत्यधिक लालसा रूपी असम्प्रयोग-अनुसरण प्रथम प्रकार का आर्त ध्यान है जो द्वेष से ग्रस्त व्यक्ति को होता है। कान को अप्रिय शब्द सुनने को मिलने पर, आँख को अप्रिय रूप देखने को मिलने पर, नासिका को दुर्गन्ध सूंघने को मिलने पर, जीभ को बुरे स्वाद वाली ध्यानशतक 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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