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________________ छद्मस्थ के ध्यान प्रवाह का निरूपण करते हैं: • अंतोमुहुत्तपरओ चिंता झाणंतरं व होज्जाहि । सुचिरंपि होज्ज बहुवत्थुसंकमे झाणसंताणो ।। 4 ।। व्याख्या : छद्मस्थ के ध्यान में अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् कोई भावना, अनुप्रेक्षा या चिन्तन प्रारम्भ हो जाता है। अनेक वस्तुओं का आलम्बन लेने पर ध्यान का प्रवाह लम्बे समय तक भी हो सकता है । छद्मस्थ के ध्यान में अन्तर्मुहूर्त पश्चात् छद्मस्थ जीवों के चिन्ता अथवा ध्यानान्तर प्रारम्भ हो जाता है । छद्मस्थ का मन बहुत वस्तुओं (ध्येयों) में संक्रमित होते रहने से ध्यान का क्रम अर्थात् चिन्तन का प्रवाह बहुत समय तक चलता रहता है। ध्यानान्तर तभी होता है जब उसके पश्चात् ध्यान होने वाला हो । किसी एक विषय पर स्थिर हुआ ध्यान अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है तत्पश्चात् चिन्तन प्रारम्भ हो जाता है, जिससे भूत एवं भविष्यत्काल से सम्बन्धित विविध विषयों या विचारों में भ्रमण करता है । यह विचारधारा बहुत समय तक चलती रहती है अर्थात् चिन्तन निरन्तर बहुत समय तक चल सकता है, परन्तु किसी एक ध्येय विषय या वस्तु में चित्त 48 मिनिट से अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकता । ग्रन्थ के प्रारम्भ में ध्यान के भेद और फल का निर्देश करते हैं:झाणाइ तत्थ अंताई । अट्टं रुद्दं धम्मं सुक्कं निव्वाणसाहणाई भवकारणमट्ट - रुद्दाई | 15 || आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यान हैं। जिनमें से आर्त और रौद्र ध्यान संसार के कारण हैं तथा अन्तिम दो ध्यान धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान निर्वाण में सहायक है । व्याख्या : ध्यान चार प्रकार का होता है- आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । ध्यान के उपर्युक्त चार प्रकारों में आर्त ध्यान एवं रौद्र ध्यान अशुभ ध्यान हैं। 'ऋते भवम् आर्तम्' इस निरुक्ति के अनुसार ऋत अर्थात् दुःख । अतः दुःख का कारण आ ध्यान है । अनादिकालीन वासना से उत्पन्न जीव की भोग प्रवृत्ति से आर्त ध्यान होता है। आगे वर्णित आर्त ध्यान के भेद-प्रभेद के माध्यम से यह स्पष्ट किया गया है कि इष्ट-वियोग और अनिष्ट-योग होने पर अर्थात् इच्छित की प्राप्ति न 60 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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