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भविष्य में पुनः उसका संयोग न हो, इस चिन्ता में मन दृढ़ होता है। उसे द्वितीय आतुर-चिन्ता अथवा व्याधि वेदनाजनित आर्त ध्यान समझना चाहिये। • तृतीय इष्ट-वियोग आर्त ध्यान का निरूपण करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं:
इट्ठाणं विसयाईण वेयणाए य रागरत्तस्स।
अवियोगऽज्झवसाणं तह संजोगाभिलासो य।। 8 ।। राग में आसक्त व्यक्ति का इष्ट विषय प्राप्ति आदि अनुकूल अनुभव होने पर इन विषय-भोगों का वियोग न हो जाय, ऐसा अध्यवसान होना तथा इनके संयोग को बनाये रखने की अभिलाषा करना——यह तीसरे प्रकार का आर्त ध्यान है।
व्याख्या :
रागयुक्त (आसक्त) प्राणी के अभीष्ट शब्दादि इन्द्रिय विषयों, उनकी आधारभूत वस्तुओं और अभीष्ट वेदना के विषय में जो उनके अवियोग के लिये सदा ऐसे ही बने रहने के लिये—अध्यवसान अथवा चित्त का प्रणिधान होता है तथा यदि उनका संयोग नहीं है तो भविष्य में उनका संयोग किस प्रकार से हो, इस प्रकार की जो अभिलाषा बनी रहती है—यह तृतीय इष्ट संयोग आर्त ध्यान का लक्षण है। • चतुर्थ निदान चिन्तन आर्त ध्यान का वर्णन करते हुए कहते हैं :
देविंद-चक्कवट्टित्तणाई गुण-रिद्धिपत्थणमईयं।
अहमं नियाणचिंतणमण्णाणाणुगयमच्चंतं ।। १ ।। देवेन्द्र और चक्रवर्ती आदि के गुण (रूपादिक) तथा ऋद्धि की प्रार्थना (याचना) करना निदान है। इसका चिन्तन करना अधम है और यह अत्यन्त अज्ञान से उत्पन्न होता है।
व्याख्या :
पाँचों इन्द्रियों सम्बन्धी आगामी काम-भोगों की प्राप्ति के लिए संकल्प करना निदान आर्त ध्यान है। अत्यन्त अज्ञान से अनुगत होने से उसे अधम (निकृष्ट) समझना चाहिए। श्रवण इन्द्रिय (कान) से राग-रागिनी, चलचित्रों के संगीत के गायन और वाद्य-यन्त्रों के मंजुल और मनोहर राग सुनने की भावना करना और उसमें आनन्द मानना; चक्षु इन्द्रिय (आँख) से नृत्य, बाग-बगीची, आतिशबाजी, महल, प्रासाद, मंडप आदि की सजावट, रोशनी आदि देखने की भावना करना और उसमें आनन्द मानना; घ्राण-इन्द्रिय (नाक) से इत्र-पुष्प आदि
ध्यानशतक 63
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