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________________ पर वस्त्र का मैल दूर होकर वस्त्र शुद्ध हो जाता है तथैव ध्यान के द्वारा भेदविज्ञान विधि से कर्म मैल धुलकर आत्मा स्वभाव की शुद्धि को प्राप्त कर लेता है। (2) शोषण—जिस प्रकार सूर्य की धूप से कीचड़ के जल का शोषण करके (जल को सुखाकर) जमीन शुद्ध हो जाती है उसी प्रकार ध्यान के द्वारा राग-द्वेष रूपी आसक्ति के रस को सुखा देने से कर्मों की फलदायी शक्ति का क्षय होने से कर्म निष्प्रभावी हो जाते हैं और आत्मा शुद्ध स्व-स्वरूप में स्थिर हो जाती है। (3) ताप-जिस प्रकार सुवर्ण में अन्य धातुओं के मिश्रण रूप कलंक को अग्नि के तीव्र ताप द्वारा अलग किया जाकर सुवर्ण को शुद्ध किया जाता है उसी प्रकार शुक्ल ध्यान में तप के ताप से समस्त कर्म भस्म हो जाते हैं और शुद्धात्म स्वरूप की उपलब्धि हो जाती है। इसीलिये ग्रन्थकार ने कहा है कि शुक्लध्यान रूपी अग्नि से कर्मेन्धन क्षय होना ही सच्चा योग है। __अविरति-प्रमाद-कषाय तथा मन-वचन-काय के योगों से कर्मों का आस्रव और बंध होता है। शुक्ल ध्यान की अवस्था में मिथ्यादर्शन आदि का अभाव होने से कर्मों का संवर और निर्जरापूर्वक क्षय होता है। इसी से केवलज्ञान प्रकट होता है। • ध्यान के चार भेदों का निरूपण करने से पूर्व ध्यान का लक्षण करने हेतु ग्रन्थकार विवेचन करते हैं जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं। तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता ।। 2 ।। स्थिर अध्यवसान ध्यान है। अस्थिर अध्यवसान को चित्त कहा जाता है भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता (चिन्तन) चित्त को स्थिर करने में सहायक है। व्याख्या : ग्रन्थकार श्री जिनभद्र क्षमाश्रमण के अनुसार चिन्ता (चिन्तन), अनुप्रेक्षा और भावना—ये तीनों ध्यानाभ्यास की भूमिका में अत्यन्त सहायक हैं, क्योंकि ये अशुभ प्रवृत्तियों को रोकने में समर्थ हैं तथा ध्यान की पात्रता उत्पन्न करने में सहायक हैं। निश्चय दृष्टि से विभिन्न प्रकार की प्रेक्षा (श्वास प्रेक्षा आदि) को ही ध्यान मान लेना भूल है। ध्यान की दिशा में अनुप्रेक्षा और भावना (यदि शुभ में एकाग्रतास्वरूप हो तो) सहायक भले हो सकती है पर चंचल चित्त का ही रूप होने से इसे ध्यान नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य को लक्ष्य में रखकर आसन-प्राणायाम आदि पूर्वक किया जाने वाला 58 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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