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ध्यानशतक
(जिनभद्र क्षमाश्रमण)
- श्री जिनभद्र क्षमाश्रमण ध्यानाध्ययन ग्रन्थ के प्रारम्भ में नमस्कारात्मक मंगलाचरण करते हैं
वीरं सुक्कज्झाणग्गिदड्ढकम्मिंधण पणमिऊणं।
जोईसरं सरणं झाणज्झयणं पवक्खामि ।।1।। जिन्होंने शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि से कर्मरूपी ईंधन को दग्धकर दिया है ऐसे शरणदाता, श्रेष्ठ योगी वीर भगवान् को नमस्कार करके ध्यानाध्ययन का प्रवचन करूँगा। व्याख्या :
ग्रन्थ के मंगलाचरण में महावीर के तीन विशेषणों के द्वारा ग्रन्थकार ने ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यान-फल का निरूपण किया है। महावीर योगीश्वर होने से साधकों के ध्यान के विषय ध्येय है। जो निरन्तर ध्यानरत रहता है, योगीश्वर गुरु की शरण में चला गया हो, कर्म क्षय का जिज्ञासु हो, वह ध्याता है। शुक्ल ध्यान से कर्म नष्ट करना श्रेष्ठ ध्यान है। कर्म क्षय होने से वीर बन जाना या केवलज्ञान की प्राप्ति ध्यान का फल है। ध्यान की प्रक्रिया और उपलब्धि के संकेत भी मंगलाचरण में दिए हैं। वीर के तीन विशेषणों में 'शुक्ल ध्यान से कर्मेन्धन विनाशक' विशेषण द्वारा ध्यान की प्रक्रिया का; 'योगीश्वर' द्वारा राग-द्वेष विजेता दुःखरहित ध्याता के स्वरूप का तथा 'शरण्य' के द्वारा योगी की विभूति का प्रतिपादन किया है।
जो ध्यान शुचिता अर्थात् पवित्रता प्रदान करने वाला है वह शुक्ल ध्यान है। शुक्ल ध्यान शोक का निवारण करता है। ग्रन्थकार ने शुक्लता या शुचिता या शुद्धि के तीन उपाय बताए हैं- (1) भेद अथवा विदारण :- जैसे जल से धोने
ध्यानशतक 57
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