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________________ भावना बढ़ती गई, वैसी प्राचीन समय में नहीं थी। इन तीनों की मौखिक परम्पराओं में इन सभी का आदान-प्रदान होता रहा है। सांख्य दर्शन, वैशेषिक दर्शन, शैव दर्शन, न्याय दर्शन ये-भिन्न-भिन्न विचारधाराएँ हैं लेकिन उसने साम्प्रदायिकता का वैसा रूप नहीं लिया जैसा कि उत्तरकालीन (तीसरी-चौथी शती ईसवी से) जैन और बौद्ध दर्शन का ब्राह्मण विचारधारा से भेद माना जाने लगा। भारतीय संस्कृति की इन तीनों चिन्तनप्रधान परम्पराओं में यह मान्यता है कि परमतत्त्व के साथ योग करने से परमशान्ति और मुक्ति मिलती है किन्तु मुक्तिपरक योग सांसारिक प्रवृत्तियों में आसक्त रहे हए संसारी लोगों के लिए कठिन है, अत: इस योग की सिद्धि के लिए अभ्यास की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार की अभ्यास प्रक्रिया हमें वैदिक (ब्राह्मण परम्परा, जो बाद में हिन्दू परम्परा कही जाती है उसमें) और हिन्दू संस्कृति में उपनिषद् और रामायण-महाभारत युग में मिलती है। परमतत्त्व के साथ चित्त को जोड़ने और उसके साथ उसको सतत जोड़े रखने के प्रवाह हेतु ध्यान का अभ्यास किया जाता है। इस प्रकार योग के लिये ध्यान अत्यन्त आवश्यक है और सांसारिक योग (आसक्ति) निरोध के लिए भी ध्यान परमावश्यक है। जैन दर्शन में योग शब्द 'मन-वचन-काय की प्रवृत्ति' अर्थ में रूढ़ हो गया है। इसका ब्राह्मण सम्प्रदाय में केवल एक चित्त शब्द से निर्देश है। यह चित्त शब्द ध्यानशतक की दूसरी गाथा में ले लिया गया है और इसके आगे सवितर्कनिवितर्क, सविचार-निर्विचार आदि प्रक्रिया ध्यानशतक में मिलती है। वह ब्राह्मण दर्शन-परम्परा के योग सूत्र में भी उपलब्ध है। और ये दोनों प्रक्रियाएँ मानो ओत-प्रोत होकर एक सुन्दर अध्ययन के रूप में ध्यानशतक में वर्णित हैं। फिर भी ध्यानशतक में इनका विस्तार आवश्यकचूर्णि में प्राप्त कई मौलिक गाथाओं पर आधारित है।54 प्रमुखतः धर्म ध्यान में संकलित आणा-अपाय-विपाकसंस्थान आदि विचय तथा विविध लेश्याओं का इस ध्यान प्रक्रिया में विश्लेषण मौलिक रूप से सम्पूर्णतः जैन परम्परा के हैं। आचाराङ्ग सूत्र, सूत्रकृताङ्ग सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र तथा दशवैकालिक सूत्र और ऋषिभाषितानि आदि प्राचीन (प्राय: तीसरी शती ईसापूर्व से छठी शती ईसवी) आगम ग्रन्थों के कई सन्दर्भो की समकालीन ब्राह्मण साहित्य के साथ 38 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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