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समानता पाई जाती है। विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखने पर ऐसे कई स्थल उपलब्ध होते हैं जिनमें वैदिक तथा श्रमण परम्परा की विभिन्न अवधारणाओं के लिए प्राय: परस्पर में मिलते-जुलते शब्दों और शैली तथा भावों का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार के विश्लेषणात्मक अध्ययन से ध्यानशतक में गुम्फित ब्राह्मण, बौद्ध
और जैन परम्पराओं के सूत्रों को समझने में सहायता प्राप्त होती है। इस प्रस्तावना में उत्तरकालीन दिगम्बर-ग्रन्थों एवं अन्य उन ग्रन्थों के समान स्थलों को प्रायः नहीं लिया गया है जो उपर्युक्त प्राचीन श्वेताम्बर आगमों की अपेक्षा प्रायः परवर्ती है; तथा प्रायः जिन अर्वाचीन ग्रन्थों के स्थलों की ध्यानशतक की गाथाओं के साथ तुलना कर बालचन्द्र शास्त्री ने समानता प्रदर्शित की है।
जिनभद्र क्षमाश्रमण ने ध्यानाध्ययन के प्रारम्भ में शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि से कर्म रूपी ईंधन का क्षय करने वाले योगीश्वर और शरण्य वीर जिन को प्रणाम किया है। आचाराङ्ग सूत्र में भगवान महावीर के शुक्ल ध्यान में स्थित होने का तथा केवल-ज्ञान केवल-दर्शन उत्पन्न होने का स्पष्ट उल्लेख है। उत्तराध्ययन,
औपपातिक सूत्र, भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति, स्थानाङ्ग सूत्र, ज्ञाता धर्मकथा आदि में प्राप्त शुक्ल ध्यान का निरूपण भी द्रष्टव्य है। ब्राह्मण परम्परा के उत्तरकालीन साहित्य में जैसे-नारदपरिव्राजक उपनिषद्, परमहंसपरिव्राजक उपनिषद्, भिक्षुक उपनिषद्, जाबाल उपनिषद् में उल्लेख है कि जो शुक्ल ध्यान परायण होकर ....... (शरीर का भान छोड़कर) संन्यासपूर्वक देह त्याग करता है वह कृतकृत्य हो जाता है अथवा परमहंस या परमहंस परिव्राजक हो जाता है। इन उद्धरणों में 'शरीरम् उत्सृज्य' पद के द्वारा ध्यान के साथ कायोत्सर्ग का भी समावेश हो जाता है जो ध्यान से उत्तरवर्ती तथा तप की पराकाष्ठा है।
ध्यानशतक के अनुसार ध्यान की सार्थकता इसमें है कि इससे कर्म भस्मीभूत हो (जल) जाते हैं और संसार का आवागमन समाप्त हो जाता है।
दशवैकालिक सूत्र में कहा है कि मोह के क्षीण हो जाने पर कर्म उसी प्रकार क्षय हो जाते हैं जैसे ईंधन रहित अग्नि धूम रहित होकर क्षीण हो जाती है।61 मैत्रायणीय उपनिषद् में भी इसी भाव और भाषा का साम्य द्रष्टव्य है
यथा निरिन्धनो वह्निः स्वयोनावुपशाम्यते।
तथा वृत्तिक्षयाच्चित्तं स्वयोनावुपशाम्यते।।। अर्थात जिस प्रकार ईंधन रहित वह्नि अपने कारण में विलीन हो जाता है तथैव वृत्तियों के समाप्त (क्षीण) हो जाने पर चित्त अपने कारण में लीन हो जाता है।
प्रस्तावना 39
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