________________
जिनभद्र क्षमाश्रमण के ध्यानशतक में ध्यान में सुनिश्चल (स्थिर) होने के लिए विविध साधन और साध्य बताए गये हैं, जैसे—एक वस्तु में चित्त को स्थिर करना, मन-वचन-काय के व्यापार रूप योग का समाधान एवं निरोध; वस्तुस्वभाव-चिन्तन, मध्यस्थभावस्थिति; ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वैराग्य भावना; सूत्र आलम्बन); आज्ञा-अपाय-विपाक-संस्थान का चिन्तन"; क्षमा-ऋजुता-निर्लोभता का आलम्बन परमाणु में मन का निरोध तथा अमन होना। इनमें ध्यान के साधन और साध्य की समानता दृष्टिगत होती है।
ध्यानशतक के लिए सम्यक्त्व गुण महत्त्वपूर्ण माना है, दर्शनशुद्धि ध्यान में चित्त भ्रान्ति को दूर कर देती है-'होइ असंमूढमणो दंसणसुद्धीए झाणंमि। 45 जो स्वयं को शंका-कांक्षा-विचिकित्सा-परपाखण्डप्रशंसा-परपाखण्डस्तुति दोषों से रहित तथा प्रशम-संवेग-निर्वेद-अनुकम्पा-आस्तिक्य तथा स्थैर्य आदि गुणों से युक्त कर लेता है वह दर्शन शुद्धि के कारण ध्यान में अभ्रान्त चित्त वाला हो जाता है। इस दृष्टि से उत्तराध्ययन सूत्र के 'सम्मत्तपरिकम्म' नामक उनतीसवें अध्ययन में उपलब्ध 75 पदों का परिचय भी इस प्रस्तावना में उपयोगी होगा, अत: उनकी सूची निम्नानुसार प्रस्तुत है : सम्यक्त्व परिकर्म-- 1. संवेग
2. निर्वेद 3. धर्मश्रद्धा
4. गुरु-साधर्मिक शुश्रूषा 5. आलोचना
6. निन्दा 7. गर्दा
8. सामायिक 9. चतुर्विंशतिस्तव
10. वन्दना 11. प्रतिक्रमण
12. कायोत्सर्ग 13. प्रत्याख्यान
14. स्तवस्तुति-मंगल 15. काल प्रतिलेखन
16. प्रायश्चित्तकरण 17. क्षमापना
18..स्वाध्याय 19. वाचना
20. प्रतिपृच्छना 21. परिवर्तना
22. अनुप्रेक्षा 23. धर्मकथा
24. श्रुत-आराधना 25. एकाग्रमनसन्निवेशन
26. संयम 27. तप
28. व्यवदान
34 ध्यानशतक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org