________________
29. सुख की स्पृहा का त्याग 30. अप्रतिबद्धता 31. विविक्त शयनासन सेवन 32. विनिवर्तना 33. सम्भोग प्रत्याख्यान
34. उपधि प्रत्याख्यान 35. आहार प्रत्याख्यान
36. कषाय प्रत्याख्यान 37. योग प्रत्याख्यान
38. शरीर प्रत्याख्यान 39. सहाय प्रत्याख्यान
40. भक्त प्रत्याख्यान 41. सद्भाव प्रत्याख्यान 42. प्रतिरूपता 43. वैयावृत्य
44. सर्वगुणसम्पन्नता 45. वीतरागता
46. शान्ति 47. मुक्ति
48. आर्जव 49. मार्दव
50. भाव-सत्य 51. करण-सत्य
52. योग-सत्य 53. मनोगुप्तता
54. वाक्गुप्तता 55. कायगुप्तता
56. मन:समाधारणता 57. वाक् समाधारणता
58. काय समाधारणता 59. ज्ञान-सम्पन्नता
60. दर्शन-सम्पन्नता 61. चारित्र-सम्पन्नता
62. श्रोत्रेन्द्रिय-निग्रह 63. चक्षुरिन्द्रिय-निग्रह
64. घ्राणेन्द्रिय-निग्रह 65. जिह्वेन्द्रिय-निग्रह
66. स्पर्शेन्द्रिय-निग्रह 67. क्रोध-विजय
68. मान-विजय 69. माया-विजय
70. लोभ-विजय 71. प्रेयो-द्वेष-मिथ्या-दर्शन विजय 72. शैलेषी 73. अकर्मता
सम्यक्त्व परिकर्म का प्रारम्भ संवेग से हआ है तथा समापन अकर्मता से। संवेग का अर्थ है संसार के प्रति भय और तीव्र उदासीनता। ऐसा वैराग्य चित्त की एकाग्रता की प्राथमिक योग्यता है। ध्यानशतक में चित्त के स्थिर अध्यवसान को ध्यान कहा है। पतंजलि भी चित्त के निरोध के लिये अभ्यास और वैराग्य को हेतु मानते हैं।46 अकर्मता का अर्थ है सर्वथा कर्ममुक्त होना । ध्यानशतक में ही कहा है कि शुक्ल ध्यान से कर्मों का क्षय होता है और योगी शैलेषी अवस्था को प्राप्त
प्रस्तावना 35
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org