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13. समाही (समाधि)—चित्त का स्वास्थ्य अथवा चित्त की एकाग्रता। 14. आचारे (आचार)--माया रहित आचरण । 15. विणओवए (विनय)-विनय । मान-अहंकार नहीं करना । 16. धिई मई (धृतिमति)-धैर्यप्रधान बुद्धि । 17. संवेगे (संवेग)-संसार से उदासीनता । 18. पणिही (प्रणिधि)—सुदृढ़ निश्चय, चित्त की एकाग्रता । हरिभद्र ने प्रणिधि
का अर्थ माया किया है तदनुसार माया न करना, प्रशस्त योग संग्रह के
लिए है। यहाँ अपणिही नहीं होने से 'पणिही' का प्रणिधान अर्थ लिया है। 19. सुविही (सुविधि)—सद् अनुष्ठान । 20. संवरे (संवर)---आस्रव-निरोध । 21. अत्तदोसोवसंहारो (आत्मदोषोपसंहार)-अपने दोषों का निरोध । 22. सव्वकामविरत्तिया (सर्वकामविरक्तता)—सभी प्रकार की कामनाओं से
वैराग्य। 23. पच्चक्खाण (प्रत्याख्यान)—पंचमहाव्रत रूप मूलगुण विषयक
प्रत्याख्यान। 24. पच्चक्खाण (प्रत्याख्यान)-स्वाध्यायादि उत्तरगुण-विषयक
प्रत्याख्यान। 25. विउस्सग्गे (व्युत्सर्ग)—द्रव्य-त्याग और भाव-त्याग। 26. अप्पामए (अप्रमाद)--प्रमाद रहित होना । 27. लवालवे (लवालव)--साध्वाचार का सतत प्रतिक्षण पालन । 28. झाणसंवरजोगे (ध्यानसंवरयोग)—ध्यानात्मक संवरयोग । 29. उद्दए मारणंतिए (मारणांतिक-उदय)—मारणान्तिक वेदना होने पर भी
क्षोभ रहित होना। 30. संगाणं परिण्णा (संग-परिज्ञा)-आसक्ति का ज्ञान एवं प्रत्याख्यान । 31. पायच्छित्तकरणे (प्रायश्चित्त-करण)—प्रायश्चित्त करना। 32. आराहणा य मरणंते (मारणान्तिक आराधना)--तप द्वारा शरीर एवं
कषायों को क्षीण करना। ध्यान प्रतिक्रमण का एक अङ्ग है, अतः प्रतिक्रमण-आवश्यक में वर्णित उपर्युक्त बत्तीस योगों में निहित हार्द ध्यानशतक में भी उपलब्ध है।
प्रस्तावना 33
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