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सव्वाणुओगमूलं भासं समाइअस्स सोऊण । होइ परिकम्मिअमई जोग्गो सेसाणुओगस्स ।। 3603 ।। अर्थात् इस प्रकार यह सामायिक (आवश्यक ग्रन्थ के सम्पूर्ण भाष्य का प्रथम अध्ययन सामायिक) का संक्षेप में अर्थकथन समाप्त हुआ। इसका विस्तार केवली अथवा पूर्वो के ज्ञाता प्रभाषित करते हैं। सभी अनुयोगों के मूल सामायिक के भाष्य को सुनकर निर्मलमति हुआ व्यक्ति शेष अनुयोगों में कुशल हो जाता है।
उक्त गाथा द्वयपरक उपसंहार प्राप्त होने से जिनभद्र रचित ध्यानशतक में भी अन्तिम दो गाथाओं के उपसंहार का प्रचलन माना जा सकता है। इतना होने पर भी प्रायः विद्वान् 45 गाथा को हाशिये की गाथा मानकर मूल कलेवर में सम्मिलित नहीं करते हैं और अन्तिम गाथा को भी अन्यकर्तृक कहकर ध्यानशतक को 105 गाथाओं की रचना मानते हैं, यह उचित नहीं है। उपर्युक्त शोध के आधार पर ध्यानशतक की 107 गाथाएँ माननी चाहिए। यह प्रामाणिक रूप से कहा जा सकता है कि ध्यानशतक में 105 गाथाएँ मानना उचित नहीं है, भण्डारकर ओरिएण्टल इन्स्टीट्यूट की हस्तप्रति के आधार पर ध्यानशतक में 106 गाथाएँ हैं तथा अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार ध्यानशतक में 107 गाथाएँ हैं। ध्यानशतक के रचयिता के विषय में विमर्श
ध्यानशतक के रचयिता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हैं। ऐसा ध्यानशतक की अन्तिम गाथा के रूप में उपलब्ध परम्परा से स्पष्ट है।" पण्डित दलसुख मालवणिया ने गणधरवाद की प्रस्तावना में ध्यानशतक की गाथाओं के व्याख्याकार हरिभद्र को उद्देश्य कर इस प्रकार लिखा है- 'आचार्य हरिभद्र ने उसकी सभी गाथाओं की व्याख्या भी की है, किन्तु उसमें उन्होंने इस ग्रन्थ को 'शास्त्रान्तर' कहकर भी यह नहीं बताया कि वह किसकी रचना है? आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने भी अपनी टिप्पणी में रचयिता के विषय में कोई संकेत नहीं किया, अत: इस कृति का आचार्य जिनभद्र द्वारा लिखा जाना संदिग्ध है।' मालवणियाजी आगे लिखते हैं- '......आचार्य हरिभद्र ने ध्यानशतक में प्रतिपादित विषय की महत्ता के कारण ही इसे शास्त्रान्तर कहा है। इस उल्लेख से हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि आचार्य हरिभद्र ने आचार्य जिनभद्र के इस ध्यानशतक को उपयोगी समझकर आवश्यकनियुक्ति में समाविष्ट कर लिया और उसकी व्याख्या भी कर दी। यदि यह कृति भद्रबाहु की न होती तो हरिभद्र स्पष्टतः इस बात को लिखते और यह भी बताते कि यह किसकी रचना है?12
28 ध्यानशतक
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