SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 51 से 71 'आणा' शब्द के निरूपण में उद्धृत ध्यानशतक की गाथा संख्या 46 से 50। ____ 'जिणविज्ज शब्द के निरूपण हेतु उद्धृत ध्यानशतक की गाथा संख्या 72 से 74 जिसे अभिधान राजेन्द्र कोश के तृतीय भाग में प्रकाशित करने का उल्लेख किया- 'आह-कथं पुनः छद्मस्थः त्रिभुवनविषयं संक्षिप्याणौ धारयति, केवली व ततोऽप्यपनयति । अत्र दृष्टान्तः 'जिणविज्ज' शब्दः तृतीय भागे 1506 पृष्ठे गत ।' 'आणाविजय....' गाथा 45 तथा अन्तिम गाथा 'पंचुत्तरेण....' को ध्यानशतक का ही कलेवर मानना न्यायसंगत है, भले वह हस्तप्रति के हाशिये में लिखी गई हो अथवा लिपिकर्ता के प्रमाद से छूट गई हो। 'आणाविजय......' आदि गाथा चार प्रकार के ध्यातव्य का नाम निर्देश करती है, जिसके पश्चात् क्रमशः आज्ञा आदि विचयों का वर्णन 46वीं आदि गाथा में किया गया है। स्वयं टीकाकार हरिभद्र ने 44वीं गाथा की समापन टिप्पणी 'इति गाथार्थः' ।।44 ।। गतं क्रमद्वारम्,' कहकर अगली गाथा की उत्थानिका करते हुए कहा-~-इदानीं ध्यातव्यमुच्चते। सम्भवतः यहाँ 'आण.....' आदि 45वीं गाथा का अंकन छूट गया हो। गाथा में चार भेद आज्ञाविचय, अपाय, विपाक और संस्थान को धर्म ध्यान के चार पद के रूप में निरूपण किया है। इस गाथा के सरल अर्थ की व्याख्या हरिभद्र ने इस प्रकार की है—तच्चतुर्भेदमाज्ञादि; उक्तं च 'आज्ञाऽपायविपाक-संस्थानविचयाय धर्म' (तत्त्वार्थे अ. 9 सूत्र 36) मित्यादि, तदुपरान्त अगली गाथा के पूर्व 'तत्राद्यभेदप्रतिपादनायाह'- लिखकर उत्थानिका की एवं प्रथम आज्ञाविचय का वर्णन करने वाली गाथा 'सुनिउण' को उद्धृत किया। इस प्रकार ‘आणा...' आदि गाथा को 45 गाथा के रूप में स्वीकार करना चाहिये तथा अन्तिम गाथा 'पंचुत्तरेण......' तथा इसकी पूर्ववर्ती ‘इय सव्वगुणाधाणं.....' इस ध्यान की प्रशंसात्मक गाथा को मिलाकर दो गाथाओं को पुष्पिका तथा 105 गाथाओं को ध्यान का कलेवर स्वीकार करना चाहिये।' __ अन्तिम दो गाथाओं द्वारा उपसंहार करने की परम्परा अन्यत्र विशेषावश्यक भाष्य में भी उपलब्ध है। हेमचन्द्राचार्य ने इसकी वृत्ति में अन्तिम दो गाथाओं से पूर्व ग्रन्थ के उपसंहार का निर्देश किया है अथप्रकृतोपसंहारार्थमात्मन औद्धत्य परिहारार्थं च श्रीजिनभद्रगाणिक्षमाश्रमण पूज्याः प्राहुः-- इयं परिसमापियं सामाइअ मत्थओ समासेण। वित्थरओ केवलिणो पुव्वविओ वा पहासंति ।। 3602।। प्रस्तावना 27 Jain. Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy