________________
चार गतियों से जोड़ते हुए जैन परम्परा में यह कहा गया है कि आर्त ध्यान तिर्यंच गति का, रौद्र ध्यान, नरक गति का, धर्म ध्यान मनुष्य या देव गति का तथा शुक्ल ध्यान मोक्ष गति का हेतु है। इसके पश्चात् प्रस्तुत ग्रन्थ में आर्त ध्यान के चार प्रकारों- 1. अनिष्ट या अमनोज्ञ का संयोग, 2. रोगादि की वेदना, 3. इष्ट का वियोग और 4. निदान अर्थात् भविष्य सम्बन्धी आकांक्षा का उल्लेख हुआ है। तत्पश्चात् यह बताया गया है कि रोगादि की वेदना में और रोगमुक्ति के प्रयासों में भी वास्तविक मुनि को आर्त ध्यान नहीं होता है, क्योंकि आलम्बन प्रशस्त होता है। इसी प्रकार मोक्ष की इच्छा भी निदान रूप नहीं है, क्योंकि उसमें राग-द्वेष-मोह नहीं हैं। इसके पश्चात् आर्त ध्यान के लक्षण आक्रन्द, दैन्य आदि की चर्चा है। अन्त में आर्त ध्यान में कौन-सी लेश्या होती है और आर्त ध्यान का स्वामी कौन है अर्थात् आर्त ध्यान किन गुणस्थानवी जीवों को होता है इसकी चर्चा है। इस प्रकार गाथा 6 से लेकर 18 तक बारह गाथाओं में आर्त ध्यान सम्बन्धी विवेचन है। ज्ञातव्य है कि जैन धर्म में आर्त ध्यान को ध्यान का एक रूप स्वीकार करके भी त्याज्य माना है।
आगे गाथा क्रमांक 19 से 22 तक चार गाथाओं में रौद्र ध्यान के चार प्रकारों-1. हिंसानुबन्धी, 2. मृषानुबन्धी, 3. स्तेयानुबन्धी और 4. संरक्षणानुबन्धी के स्वरूपों का विवेचन हुआ है। इसके पश्चात् गाथा क्रमांक 23-24 में यह बताया गया है कि रौद्र ध्यान स्वयं करना, अन्य से करवाना अथवा करते हुए का अनुमोदन करना—ये तीनों ही राग, द्वेष और मोहयुक्त होने से नरक गति के हेतु है। इसके पश्चात् 25वीं गाथा में आर्त ध्यान में कौन-सी लेश्या होती है इसकी चर्चा की गई है। तदनन्तर रौद्र ध्यान के लक्षणों की चर्चा की गई है। रौद्र ध्यान को ध्यान के अन्तर्गत वर्गीकृत करके भी उसे हेय और नरक गति का हेतु बताया गया है। आर्त और रौद्र ध्यान हेय या त्याज्य होने से प्रस्तुत कृति में इन दोनों का विवेचन अत्यन्त संक्षेप में मात्र 21 गाथाओं (7-27 तक) में हुआ है। जबकि धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान का विवेचन लगभग 58 गाथाओं में किया गया है।
धर्म ध्यान की चर्चा के प्रसंग में प्रस्तुत ग्रन्थ में धर्म ध्यान का विवेचन निम्न बारह द्वारों अर्थात् विभागों में किया गया है- 1. भावनाद्वार, 2. देश अर्थात् ध्यान स्थल द्वार, 3. काल अर्थात् ध्यान का समय, 4. ध्यान के आसन, 5. धर्म ध्यान के आलम्बन (स्वाध्याय), 6. ध्यान का क्रम, 7. ध्यान का विषय, 8. ध्याता की योग्यता जैसे अप्रमत्तादि, 9. अनुप्रेक्षा अर्थात् ध्यान में चिन्तनीय विषय,
20 ध्यानशतक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org