SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10. धर्म ध्यान की लेश्या (मनोवृत्ति), 11. धर्म ध्यान के लक्षण एवं 12. धर्म ध्यान का फल या परिणाम । इसी क्रम में धर्म ध्यान के प्रकारों का भी उल्लेख हुआ है- 1. आज्ञाविचय अर्थात् वीतराग परमात्मा ने क्या-क्या करने या नहीं करने का आदेश दिया है, उसका चिन्तन करना, 2. अपायविचय अर्थात् राग-द्वेष-मोहकषाय आदि की दोषरूपता का चिन्तन करना, 3. विपाकविचय-कर्मों के उद्देश्य अर्थात् विपाक (फल) का विचार करना, 4. संस्थानविचय अर्थात् लोक के स्वरूप पर विचार करना । साथ ही यह भी बताया गया है कि अप्रमत्त संयत अर्थात् सातवें गुणस्थान से लेकर 11वें उपशान्तमोह या 12वें क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती मुनि धर्म ध्यान के अधिकारी या ध्याता होते हैं। इसी प्रकार धर्म ध्यान के ध्याता में तेजो, पद्म और शुक्ल-ये तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रस्तुत कृति ध्यानशतक या ध्यानाध्ययन में गाथा क्रमांक 28 से 68 तक 41 गाथाओं में धर्म ध्यान का विवेचन हुआ है। इसके आगे 37 गाथाओं में शुक्ल ध्यान का विवेचन है। प्रस्तुत कृति में धर्म ध्यान के समान शुक्ल ध्यान के भी बारह द्वार बताये गये हैं, किन्तु इनमें भावना, देश (स्थान), काल (ध्यान के योग समय) तथा आसन (ध्यान के आसन)—ये चार धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान में समान होने से शुक्ल ध्यान की चर्चा के प्रसंग में इनका पुन: उल्लेख नहीं किया है, अत: सर्वप्रथम शुक्ल ध्यान के क्षान्ति (क्षमा), मार्दव (विनम्रता), आर्जव (सरलता) और मुक्ति (निर्लोभता)—ये चार आलम्बन बताये गये हैं। वस्तुतः शुक्ल ध्यान का मुख्य लक्ष्य कषायों पर विजय प्राप्त करना है, अत: क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायों के प्रतिरोधी चार धर्मों को शुक्ल ध्यान का आलम्बन कहा गया है। ध्यान क्रम की चर्चा करते हुए इसमें यह बताया गया है कि विषयसंकोच अर्थात् संसार के विषयों के प्रति अनात्म भाव जाग्रत करते हुए अर्थात् ये मेरे नहीं हैं, मैं इनसे भिन्न हूँ, आत्मा के शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टा भाव पर चित्त को केन्द्रित करना—यह विषयसंकोच का क्रम है, छद्मस्थ जीव इसी क्रम से शुक्ल ध्यान करता है, किन्तु वीतराग परमात्मा का शुक्ल ध्यान योग निरोध रूप शैलेषी अवस्था रूप होता है, यहाँ 'मन', 'अमन' हो जाता है। इसके तीन दृष्टान्त दिये गये हैं, जैसे मान्त्रिक शरीर में व्याप्त जहर को डंक स्थान पर लाकर निर्मूल कर देता है, वैसे ही शुक्ल ध्यान अपने विषयों में व्याप्त मन को क्रमशः उसके भूमिका 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy