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________________ अर्थात् उनके सम्पादन का काल है। उनकी रचना तो उसके पूर्व ही हो चुकी थी। स्थानांगसूत्र को प्रस्तुत ध्यानशतक का आधारग्रन्थ माना जा सकता है। उसकी रचना उसके काफी पूर्व ही हो चुकी थी, चूँकि उल्लेख हैं वे भी उसे ईसवी सन् की प्रथम-द्वितीय शताब्दी से परवर्ती सिद्ध नहीं करते हैं। स्थानांगसूत्र में आयारदशा आदि दस दशा ग्रन्थों के नाम और उनकी विषयवस्तु का जो उल्लेख है वह समवायांग और नन्दीसूत्र में वर्णित उनकी विषयवस्तु से काफी प्राचीन है। वे नागार्जुनीय (तीसरी शती) और देवर्द्धिगणि की वाचना के पूर्व के हैं और ध्यानाध्ययन में ध्यान के उसी प्राचीन रूप का अनुसरण देखा जाता है। यदि ज्ञाणाज्झयण, अपर नाम ध्यानशतक का आधार स्थानांगसूत्र रहा हो, तो भी वह ईसवी सन् की दूसरी शती से पूर्ववर्ती तथा पाँचवी-छठी शती से परवर्ती नहीं है, क्योंकि विक्रम की आठवीं शताब्दी और तदनुसार ईसवी सन् सातवीं शती के उत्तरार्द्ध में हुए हरिभद्र स्वयं इसे न केवल उद्धृत कर रहे हैं, अपितु आवश्यकवृत्ति के अन्तर्गत उस पर टीका भी लिख रहे हैं। अतः झाणाज्झयण, अपर नाम ध्यानशतक का रचनाकाल ईसा की दूसरी शती के पश्चात् और ईसवी सन की सातवीं शती के प्रथम दशक के पूर्व हो सकता है। फिर भी मेरी दृष्टि में इसे जिनभद्र क्षमाश्रमण की रचना होने के कारण ईसवी सन् की छठी शती के अन्तिम चरण की रचना मानना अधिक उपयुक्त है। ग्रन्थ की विषयवस्तु और उसका वैशिष्ट्य प्रस्तुत ग्रन्थ में सर्वप्रथम मंगल गाथा में ग्रन्थ रचना के उद्देश्य को स्पष्ट करने के पश्चात् दूसरी गाथा में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अध्यवसायों की एकाग्रता 'ध्यान' है और उनकी चंचलता 'चित्त' है। यह चित्त भी तीन प्रकार का है- 1. भावना रूप, 2. अनुप्रेक्षा रूप और 3. चिन्ता । भावना की अपेक्षा अनुप्रेक्षा में और अनुप्रेक्षा की अपेक्षा चिन्ता में चित्त की चंचलता वृद्धिंगत होती जाती है। जबकि ध्यान में चित्त एकाग्र रहता है। सामान्य व्यक्तियों के लिए अन्तर्मुहूर्त तक चित्तवृत्ति का एकाग्र होना ध्यान है, किन्तु तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिन जब चौदहवें गुणस्थान में योग निरोध करते हैं अर्थात् मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का निरोध करते हैं तब उसे ध्यान कहते हैं। इसके पश्चात् ध्यान के चार प्रकारों अर्थात् 1. आर्त ध्यान, 2. रौद्र ध्यान, 3. धर्म ध्यान और 4. शुक्ल ध्यान का उल्लेख करते हुए प्रथम दो को भवभ्रमण का कारण और अन्तिम दो को मुक्ति का साधन बताया गया है। चार ध्यानों को भूमिका 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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