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________________ प्रथम भेद 'पृथक्त्व-वितर्क-अविचार' से उलटा प्रतीत होता है। परन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है प्रत्युत् प्रथम भेद की चरम स्थिति के परिणामस्वरूप प्रगट होने वाला उसका अगला भेद है, जो निर्विकल्पतापूर्वक एकत्व स्थिति का द्योतक है। जब पृथक्त्व भाव की पूर्णता में आत्मा कषाय और मोह से पूर्णतया रहित हो जाता है और उसके लिये पृथक्त्व की उपयोगिता नहीं रहती है तो पृथक्त्व भाव व विकल्प का अभाव होकर आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। इस अवस्था में केवल अकेले निजस्वरूप का ही ध्यान होता है। इस अकेलेपन या एकत्व की स्थिति को ही 'एकत्व-वितर्क-अविचार' शुक्ल ध्यान कहा गया है। _ 'एकत्व' शब्द का अर्थ है एकता अर्थात् भेद का अभाव। यह सर्वमान्य तथ्य है कि जहाँ एकता है वहाँ भेद नहीं होता है । भेद वहीं होता है जहाँ पृथक्त्व है, भिन्नता है। अतः अभेद को एकत्व का सहचर, समानार्थवाची कहा जा सकता है। पदार्थों को देखने की मुख्यतः दो दृष्टियाँ हैं—पर्यायार्थिक और द्रव्यार्थिक । पर्यायार्थिक दृष्टि द्रव्यों के परिणमनशील पर्यायों पर रहती है। प्रत्येक द्रव्य की पर्यायें अनंत होती हैं। अत: यह दृष्टि अनंत भेदों व विकल्पों को जन्म देती है और विकल्प विचारों को जन्म देते हैं। तात्पर्य यह है कि विचार की विद्यमानता भेद या पृथक्त्व दृष्टि में ही है। दूसरी दृष्टि द्रव्यार्थिक है। यह द्रव्य के अपरिणमनशील, शाश्वत, ध्रुवरूप को देखती है। इस दृष्टि से द्रव्य की समस्त पर्यायों व रूपों में द्रव्य की एकता है। उनमें भेद पर्यायगत है, द्रव्यगत नहीं। अत: पर्याय दृष्टि से ही द्रव्य में अनंत भेद होते हैं, द्रव्य दृष्टि से द्रव्य में भेद को स्थान ही नहीं है। भेद ही चित्त में चंचलता उत्पन्न करता है। एकत्व में विकल्प उठने का कारण शेष न रहने से चित्त में स्थिरता आती है। दृष्टि जितने अंशों में द्रव्य के अपरिणमनशील शाश्वत स्वरूप पर टिकती जाती है, चित्त में उतने ही अंशों में स्थिरता आती जाती है। इस दृष्टि से विश्व में जो पदार्थ व उनके रूप दिखाई देते हैं वे सिमट कर दो द्रव्यों के रूपों में आ जाते हैं, वे हैं—जीव और अजीव; आत्म और अनात्म । परन्तु जब साधक अनात्म द्रव्य को अनुपयोगी समझ पृथक्त्व भाव द्वारा उससे संबंध-विच्छेद कर लेता है तो केवल आत्म द्रव्य ही शेष रह जाता है। जब आत्मा को भी द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से देखता है तो वह विश्व की सभी आत्माओं को एक ही समान स्वभाव वाली देखता है अर्थात् अपने ही समान देखता है। अत: उन सब के प्रति सहज आत्मीयता का भाव प्रकट होता है जिससे उसके हृदय में किसी भी प्राणी के प्रति राग-द्वेष या अपनेपरायेपन का भाव नहीं रहता है। आत्मीयता का यह भाव सब प्राणियों के प्रति 110 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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