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________________ मानता है । यही पर के साथ एकत्व भाव रूप अहंत्व, ममत्व, अपनत्व भावं राग-द्वेष, विषय - कषाय आदि सर्व दोषों या विकारों का मूल है। रागादि विकारों को दूर करने के लिये पर के साथ रहे हुए एकत्व व तादात्म्य भाव को दूर करना आवश्यक है। जो पृथक्त्व भाव से ही संभव है । पृथक्त्व भाव के विकास के विविध रूप हैं, कोई ध्याता पहले शरीर से बाहर के संबंधित पदार्थ धन, धाम, धरा, दारा, पुत्र, मित्र आदि से अपनी आत्मा को पृथक् अनुभव करता है । फिर तन से; पश्चात् तन से सूक्ष्म पदार्थ मन से, तदनंतर उससे भी सूक्ष्म पदार्थ कर्म से आत्मा को पृथक् अनुभव करता है। इस प्रकार पृथक्त्व का विस्तार करता हुआ साधक इस सीमा पर पहुँच जाता है कि पर-पदार्थ मात्र से आत्मा को पृथक् अनुभव करता है । कोई ध्याता प्रथम प्रत्येक पदार्थ को पृथक्-पृथक् अनुभव करता है। फिर पुद्गल आदि अजीव द्रव्यों की सर्व पर्यायों से अपनी आत्मा को पृथक् करता है आदि-आदि। पृथक्कीकरण की ध्यान की यह प्रक्रिया ही 'पृथक्त्व वितर्क सविचार' कही जाती है। इस पृथक्त्व वितर्क सविचार ध्यान की चरम सीमा ही परम ध्यान — एकत्व - वितर्क- अविचार का प्रवेश-द्वार है । एकत्व - वितर्क- अविचार का निरूपण करते हैं: जं पुण सुणिप्पकंपं निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । - ठिड़-भंगाइयाणमेगंमि उप्पाय अवियारमत्थ- वंजण - जोगंतरओ तयं बितियसुक्कं । पज्जाए ।180 ।। पुव्वगयसुयालंबणमेगत्तवितक्कमवियारं ।। 81 ।। वायुरहित प्रदेश में रखे हुए निष्कम्प लौ वाले दीपक के समान जो चित्त उत्पाद, स्थिति और लय से किसी एक पर्याय में स्थिर हो, निष्कम्प होता है; जो अविचार होकर पूर्वगत श्रुत का आश्रय लेने वाला होता है, वह अर्थव्यञ्जन और योग के विचार से रहित होने के कारण एकत्व - वितर्क- अविचार नामक द्वितीय शुक्ल ध्यान है। इस ध्यान में ध्येय के अर्थ-व्यञ्जना - योग का भेद नहीं रहता है। Jain Education International व्याख्या : इस ध्यान में ध्येय के विषय में यह अर्थ (पदार्थ) है, यह व्यञ्जन (शब्द) है, यह योग ( पदार्थकार) है, ऐसा भेद नहीं रहता है। शुक्ल ध्यान का दूसरा भेद 'एकत्व - वितर्क - अविचार' है । सामान्य या शाब्दिक दृष्टि से देखने में यह भेद ध्यानशतक 109 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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