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________________ एकत्व व अभेदत्व भाव के रूप में प्रकट होता है, अतः सहज ही निर्विकल्प अवस्था की उपलब्धि हो जाती है । • सूक्ष्म - क्रियाऽनिवृत्ति तथा व्यवच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति शुक्ल ध्यान का निरूपण करते हैं: निव्वाणगमणकाले केवलिणो द्वयनिरुद्धजोगस्स । सुहुमकिरिया नियट्टि तइयं तणुकायकिरियस्स ।। 82 ।। तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव्व णिप्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइज्झाणं परमसुक्कं ।। 83 ।। मोक्षगमन के प्रत्यासन्न काल में केवली के मन और वचन, दोनों योगों की प्रवृत्ति निरुद्ध हो जाती है, किन्तु उच्छ्वास निःश्वास रूप काया की सूक्ष्म क्रिया वर्तमान रहती है (शेष रहती है) । यह शुक्ल ध्यान का 'सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति' नामक तृतीय प्रकार है । शैलेषी अवस्था को प्राप्त केवली सुमेरु पर्वत की भाँति निष्प्रकम्प हो जाता है। उसके यह शुक्ल ध्यान का 'व्यवच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती' चतुर्थ प्रकार है । यह परमशुक्ल ध्यान है । व्याख्या : शुक्ल ध्यान का तीसरा भेद 'सूक्ष्म क्रियाऽनिवृत्ति' है । शुक्ल ध्यान के दूसरे भेद 'एकत्व-वितर्क-अविचार' में कर्मबंध प्रगाढ़ नहीं होने के कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग का अभाव हो जाता है। इनका अभाव हो जाने से योगों की क्रियाओं द्वारा संपादित कर्म निःसत्त्व हो जाते हैं, उनमें अत्यंत निर्बलता, लघुता व सूक्ष्मता आ जाती है। इन क्रियाओं से प्रथम समय में कर्मबंध होता है, द्वितीय समय में उदय व तृतीय समय में निर्जरा होती है । अर्थात् अत्यंत सूक्ष्म है । इस सूक्ष्मता की चरम सीमा तो तब आती है जब मन और वचन योग की क्रियाओं का पूर्ण रूप से निरोध हो जाता है और काया की भी अर्ध क्रिया शेष रहती है । यह अवस्था ही 'सूक्ष्म क्रियाऽनिवृत्ति' कही गई है । कुछ आचार्यों का मत है कि सर्वज्ञदेव निर्वाण गमन के समय जब योगों का निरोध करने लगते हैं तो दूसरे सब योगों का अभाव कर देते हैं, केवल सूक्ष्म काय योग रहता है, तब काय वर्गणाओं के निमित्त आत्म-प्रदेशों का अतिसूक्ष्म परिस्पन्द शेष रहता है इसलिये इसका नाम सूक्ष्म क्रियाऽनिवृत्ति ध्यान है । यह ध्यान मन, वचनयोग का पूर्ण निरोध होने और काययोग का अर्ध निरोध होने पर रहता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only ध्यानशतक 111 www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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