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________________ तह विसइंधणहीणो मणोहुयासो कमेण तणुयंमि। विसइंधणे निरंभइ निव्वाइ तओऽवणीओ य ।।75 ।। जिस प्रकार ईंधन के निकालते रहने पर अग्नि क्रमशः क्षीण होती जाती है और थोड़ा ईंधन रह जाने पर वह अग्नि निरुद्ध (ज्वालारहित) हो जाती है; तत्पश्चात् अल्प ईंधन को निकाल देने पर वह बुझ जाती है। उसी प्रकार विषयरूपी ईंधन से परिहीन मन रूपी अग्नि क्रमशः क्षीण हो जाती है। थोड़े-से विषय-ईंधन के रहने पर वह मन अग्नि निरुद्ध हो जाती है तथा पूर्णत: विषय ईंधन समाप्त हो जाने पर वह मन रूपी अग्नि बुझ जाती है, विलीन हो जाती है। व्याख्या : __ ईंधन के अभाव में जैसे अग्नि क्रमश: क्षीण होती जाती है अथवा थोड़ा ईंधन होने पर निर्वात (ज्वालारहित) हो जाती है और फिर नष्ट (अपनीत) हो जाती है। उसी प्रकार विषय (विकार) रूपी ईंधन के अभाव में मन रूपी अग्नि क्रमशः क्षीण होती जाती है अथवा विषय रूपी ईंधन के कम होने पर निरुद्ध हो जाती है, तथा निर्वात हो जाती है, फिर नष्ट हो जाती है, बुझ जाती है। अर्थात् मन का निरोध हो जाता है। • मन-वचन-काय की स्थिरता से शैलेषी अवस्था का वर्णन करते हैं: तोयमिव नालियाए तत्तायसभायणोदरत्थं वा। परिहाइ कमेण जहा तह जोगिमणोजलं जाण ।। 76 ।। एवं चिय वयजोगं निरंभइ कमेण कायजोगपि । तो सेलेसोव्व थिरो सेलेसी केवली होइ ।।77 ।। जिस प्रकार नालिका (क्षुद्र घट) का (बहता) जल अथवा तपे हुए लोहे के पात्र में डाला हुआ जल क्रमश: (बहकर या सूखकर) क्षीण होता जाता है उसी प्रकार शुक्ल ध्यान में लीन योगी का मन रूपी जल भी क्रमशः क्षीण होता जाता है। योगी अमन हो जाता है। इसी प्रकार क्रमश: वचन-योग और काय-योग का भी निरोध करता है और केवली मेरु पर्वत की भाँति स्थिर होकर शैलेषी अवस्था को प्राप्त कर लेता है। व्याख्या: जिस प्रकार क्षुद्र घट की नाली द्वारा जल का क्रमशः अभाव होता है या तपे हुए लोहे के पात्र में स्थित जल क्रमशः क्षीण होता जाता है, उसी प्रकार शुक्ल 106 ध्यानशतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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