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________________ संक्षिप्त करता हुआ उसको अणु में स्थापित कर, निष्प्रकम्प होकर ध्यान करता है। केवली अमन (चित्तवृत्ति निरोधपूर्वक अन्त:करण रहित अवस्थावाला) होता है, अतः उसके मानस ध्यान नहीं होता, उसके केवल काय-चेष्टा निरोधात्मक ध्यान होता है। व्याख्या: छद्मस्थ ध्याता तीनों लोकों के विषयों को क्रमश: संकुचित करता हुआ मन को अणु में स्थापित कर निश्चल होकर ध्यान करता है और मन रहित जिन (जीतने वाला) बन जाता है अथवा अन्त:करण की प्रवृत्ति से रहित होकर निश्चल होता हुआ ध्यान करता है तथा जिन हो जाता है। मनरहित अवस्था तो केवल केवली के होती है। • मन के निरोध की प्रक्रिया प्रस्तुत करते हैं: जह सव्वसरीरगयं मंतेण विसं निरंभए डंके। तत्तो पुणोऽवणिज्जइ पहाणयरमंतजोगेणं ।। 72 ।। तह तिहुयण-तणुविसयं मणोविसं जोगमंतबलजुत्तो। परमाणुंमि निरंभइ अवणेइ तओवि जिण-वेज्जो ।। 73 ।। व्याख्या: जिस प्रकार सारे शरीर में व्याप्त विष को मंत्र के द्वारा डसने के स्थान पर रोका जाता है, (उसे फैलने नहीं दिया जाता है) और उस डंक स्थान से प्रधानतर मंत्रयोग द्वारा (विष को) दूर कर दिया जाता है। उसी प्रकार से जिनेश्वर रूपी वैद्य तीनों लोकों के शरीर को विषय करने वाले मन रूपी विष को मंत्रयोग के बल से युक्त होकर परमाणु में निरुद्ध करता है और उस परमाणु से भी उस मन को हटा लेता है। .अमन होने की प्रक्रिया प्रस्तुत करते हैं: विषवैद्य जिस प्रकार सारे शरीर में फैले हुए विष को मंत्र-प्रयोग से सर्प द्वारा डसे हुए स्थान पर रोककर (एकत्रित कर) प्रधानतर (विशेष) मंत्र-प्रयोग से उसे (विष को) निकाल देता है; उसी प्रकार मंत्र (जिन-वचन) और ध्यान के एक परमाणु में निरुद्ध कर उसका (मन का) भी अपनयन कर देते हैं। उस्सारियेंधणभरो जह परिहाइ कमसो हुयासुव्व। थोविंधणावसेसो निव्वाइ तओऽवणीओ य ।।74 ।। ध्यानशतक 105 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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