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________________ ध्यान में स्थित योगी के मन रूपी जल को जानना चाहिए अर्थात् शुक्ल ध्यान द्वारा योगी के मन की प्रवृत्ति का अभाव होता है। इसी प्रकार केवली (योगी) वचन-योग का निरोध करता है तथा इसी क्रम से काय-योग का भी निरोध करता है। तदनन्तर सुमेरुपर्वत के समान स्थिर शैलेषी अवस्था को प्राप्त हो जाता है। • पृथक्त्व वितर्क सविचार का निरूपण करते हैं: उप्पाय-द्विइ-भंगाइपज्जयाणं जमेगवत्थुमि। नाणानयाणुसरणं पुव्वगयसुयाणुसारेणं ।। 78 ।। सवियारमत्थ-वंजण-जोगंतरओ तयं पढमसुक्कं । होइ पुहुत्तवितक्कं सवियारमरागभावस्स ।।79।। जो एक वस्तु में उत्पाद, स्थिति और व्यय आदि पर्यायों (गुण-पर्यायों) का विभिन्न नयों (द्रव्यार्थिक नय से स्थिति और पर्यायार्थिक नय से उत्पाद और व्यय) के आश्रय से पूर्वगत श्रुत के अनुसार अर्थ-व्यञ्जन-योग भेदपूर्वक विचार होता है, वह राग-द्वेषरहित ध्याता के पृथक्त्व वितर्क सविचार नामक प्रथम शुक्ल ध्यान होता है। व्याख्या: अनासक्त पूर्वधर मुनि पूर्वमत श्रुत के अनुसार एक वस्तु (पाठान्तर : एक द्रव्य) में विद्यमान उत्पाद-स्थिति-व्यय आदि पर्यायों का अनेक नयों से चिन्तन करते हैं, जिसमें यह अर्थ (पदार्थ) है, यह व्यञ्जन (पद या शब्द) है, यह योग (पदार्थ-मन संयोग) है-इस प्रकार भेदपूर्वक वस्तु का चिन्तन (ध्यान) होता है। वह शुक्ल ध्यान का 'पृथक्त्व-वितर्क-सविचार' नामक प्रथम प्रकार है। सविचार का अर्थ है-व्यञ्जन-योग के भेदपूर्वक वस्तु का चिन्तन करना- यथा गौ अर्थ वस्तु या द्रव्य है, गौ व्यञ्जन शब्द है, इयं गौः यह योग मन का वस्तु के आकार से संयुक्त होना है। गौः में पदार्थ (अर्थ) भिन्न है, पद (शब्द) भिन्न है और मन का संयोग भिन्न है। इस प्रकार अर्थान्तर, व्यञ्जनान्तर और योगान्तर की अपेक्षा सविचार है। पृथक्त्व का अर्थ भेद और तर्क का अर्थ श्रुत है। जिस ध्यान में श्रुत की सामर्थ्य से द्रव्य या वस्तु की उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य अवस्थाओं का अर्थ व्यञ्जन योग के भेदपूर्वक चिन्तन होता है वह 'पृथक्त्व वितर्क सविचार' नामक शुक्ल ध्यान का प्रथम भेद है। यह शुक्ल ध्यान का प्रथम प्रकार है। इसमें ध्याता, द्रव्य, गुण और पर्याय ध्यानशतक 107 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001216
Book TitleDhyanashatak
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorKanhaiyalal Lodha, Sushma Singhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Dhyan
File Size7 MB
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