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________________ तवो दुविहो–बझो अन्भतरो य। जधा दसवेतालियचुण्णीए चाउलोदणंत (? चालणेदाणंत) अलुद्धेणं णिज़रष्टुं साधून पडिवायणीयं ८ । [आवश्यकचूगी विभाग २ पत्र ११७] । आवश्यकचूर्णिके इस उद्धरणमें दशकालिक का नाम नजर आता है । दशवकालिकसूत्रके उपर दो चूर्णीयाँ आज प्राप्त हैं--एक स्थविर अगस्यसिंहप्रणीत और दूसरी जो आगमोद्धारक श्रीसागरानन्दसूरि महागजने रतलामकी श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी जैन श्वेताम्बर संस्थाकी ओरसे सम्पादित की है, जिसके कत्ताके नामका पता नहीं मीला है और जिसके अनेक उद्धरण याकिनीमहत्तरापुत्र आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिने अपनी दशवैकालिकसूत्रकी शिष्यहितावृत्तिमें स्थान स्थान पर वृद्धविवरणके नामसे दिये हैं। इन दो चूर्गियोंमेंस आवश्यकचूर्णिकारको कौनसी चूर्णि अभिप्रेत है ?, यह एक कठिनसी समस्या है। फिर भी आवश्यकचूर्णीके उपर उल्लिखित उद्धरणको गौरसे देखनेसे अपन निर्णयके समीप पहुंच सकते हैं। इस उद्धरणमें "चाउलोदणंतं" यह पाठ गलत हो गया है । वास्तवमें "चाउलोदणंतं" के स्थानमें मूलपाठ "चालणेदाणंत" ऐसा पाठ होगा । परन्तु मूलस्थानको विना देखे ऐसे पाठोंके मूल आशयका पता न चन्ने पर केवल शाब्दिक शुद्धि करके संख्याबन्ध पाठोंको विद्वानोंने गलत बनाने के संख्यावन्ध उदाहरण मेरे सामने हैं। दशवैकालिकसूत्रकी प्राप्त दोनों चूर्णियोंको मैंने बराबर देखी है, किन्तु "चाउलोदणंत"का कोई उल्लेख उनमें नहीं पाया है और इसका कोई सार्थक सम्बन्ध भी नहीं है। दशवैकालिकसूत्रकी अगत्यसिंहीया चूर्णिमें तपके निरूपणकी समाप्ति के बाद "चालणेदाणि" [पत्र १९] ऐसा चूर्णिकारने लिखा है, जिसको आवश्यकचूर्णिकारने "चालणेदाणंतं" वाक्यद्वारा सूचित किया है । इस पाठको बादके विद्वानोंने मूल स्थानस्थित पाठको विना देखे गलत शाब्दिक सुधारा कर बिगाड दिसा-रेसा निश्चित रूपसे प्रतीत होता है। अतः मैं इस निर्णय पर आया हूं कि-आवश्यकचूर्णिकारनिर्दिष्ट दशवैकालिकचूणि अगस्त्यसिंहीया चूर्णी ही है। और इसी कारण अगस्यसिंहीया चूर्णी आवश्यकचूर्णिके पूर्वको रचना है। आचार्य श्रीहारेभद्रसूरिने अपनी शिष्यहितावृत्तिमें इस वृणीका खास तौरसे निर्देश नहीं किया है। सिर्फ रइवका = सं० रतिवाक्या नामक दशवकालिकसूत्रकी प्रथम चूलिकाकी व्याख्या में पित्र २७३-२] "अन्ये तु व्याचक्षते" ऐसा निर्देश करके अगस्यसिंहीथा चूर्णीका मतान्तर दिया है । इसके सिवा कहीं पर भी इस चर्णिके नामका उल्लेख नहीं किया है। • इस अगस्यसिंहीया चर्णिमें तत्कालवर्ती संख्याबन्ध वाचनान्तर-पाठभेद, अर्थभेद एवं सूत्रपाठोंकी कमी-वेशीका काफी निर्देश है, जो अतिमहत्त्वके हैं। यहाँ पर ध्यान देने जैसी एक बात यह है कि-दोनों चर्णिकारोंने अपनी चणीमें दशवकालिकसूत्र उपर एक प्राचीन चर्णी या वृत्तिका समान रूपसे उल्लेख रइवकाचलिका की च में किया है । जो इस प्रकार है"एत्थ इमातो वृत्तिगतातो पदुद्देसमेत्तगाधाओ । जहा दुक्खं च दुस्समाए जीविउं जे१ लहुसगा पुणो कामा २ । सातिबहुला मणुस्सा ३ अचिरडाणं चिमं दुक्खं ४ ॥ १॥ ओमजणम्मि य खिसा ५ वंतं च पुणो निस वियं भवति ६ । अहरोवसंपया वि य ७ दुलभो धम्मो गिहे गिहिणो ८ ॥२॥ निवयंति परिकिलेसा ९ बंधो ११ सावजजोग गिहिवासो १३ । एते तिणि वि दोसा न होति अणगारवासम्मि १०-१२-१४ ॥ ३॥ साधारणा य भोगा १५ पत्तेयं पुण्ण-पावफलमेव १६ । नीयमवि माणवाणं कुसग्गजलचंचलमणिचं १७ ॥४॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001150
Book TitleAgam 44 Chulika 01 Nandi Sutra
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorJindasgani Mahattar, Punyavijay
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2004
Total Pages142
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, G000, G010, & agam_nandisutra
File Size22 MB
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