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________________ ११ णत्थि य अवेदयित्ता मोक्खो कम्मरस निच्छओ एसो १८ । पदमदारसमेतं वीरवयणसासणे भणितं ।। ५।।" अगस्त्यसिंहीया चूर्ती दूसरी मुद्रित चूर्णीमें [पत्र ३५८] "एल्थ इमाओ वृत्तिगाधामो। उक्तं च" ऐसा लिखकर उपर दी हुई गाथायें उद्धृत कर दी हैं। इन उल्लेखोंसे यह निर्विवाद है कि-दशवकालिकसूत्र के उग, इन दो चूमियोंसे पूर्ववती एक प्राचीन चूर्णी भी थी, जिसका दोनों चूर्णीकारोंने वृत्ति नामसे उल्लेख किया है। इससे यह भी कहा जा सकता है कि-आगमांक उपर पद्य और गद्यमें व्याख्याग्रन्थ लिखनेकी प्रणालि अधिक पुगणी है। और इससे हिमवंतस्थविरावलीमें उल्लिखित निम्न उल्लेख सत्यके समीप पहुंचता है "तेषामार्यसिंहानां स्थविराणां मधुमित्रा-ऽऽयस्कन्दिलाचार्थनामानौ द्वौ शिष्यावभूताम् । आर्यमधुमित्राणां शिष्या आर्यगन्धहस्तिनोऽतीवविद्वांसः प्रभावकाश्चाभवन् । तैश्च पूर्वधरस्थविरोत्तंसोमास्वातिवाचकरचिततत्त्वार्थोपरि अशीतिसहस्रश्लोकप्रमाणं महाभाष्यं रचितम् । एकादशाङ्गोपरि चाऽऽयस्कन्दिलस्थविराणामुपरोधतस्तैर्विचरणानि रचितानि । यदुक्तं तद्रविताऽऽचाराङ्गविवरणान्ते यथा थेरस्स महमित्तस्स सेहेहिं तिपुवनागजुलेहिं । मुणिगणविवंदिहिं ववगयरायाइदोसेहिं ॥ १ ॥ वंभदीवियसाहामउडेहिं गंधहत्थिविबुहेहिं । विवरणमेयं रइयं दोसयवासेसु विक्रमओ ।। २ ।। आचाराङ्गैमूत्रके इस गन्धहस्तिविवरणका उल्लेख आचार्य श्रीशीलाइने अपनी आचारावृत्तिके उपोद्घालमें भी किया है । कुछ भी हो, जैन आगमोंके उपर व्याख्या लिम्वनेकी प्रणाली अधिक प्राचीन है। ४. उत्तराव्यनमूत्रचूर्णिके प्रणेता कौटिकगणीय, वत्रशाखीय एवं वाणिजकुलीय स्थविर गोपालिक महत्तरके शिष्य थे । इस चूर्णिकारने चूर्णिमें अपने नामका निर्देश नहीं किया है। इनका निश्चित समयका पता लगाना मुश्किल है । तथापि इस चूर्णिमें विशेषावश्यकभाष्यकी स्वोपज्ञ टीकाका सन्दर्भ उल्लिखित होनेके कारण इसकी रचना जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणके स्वर्गवासके बादकी है। विशे मावस्यक भाष्य की स्वोपज्ञ टीका, यह जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणको अन्तिम रचना है । छद्वे गणधरवाद तक इस टीकाका निर्माण होने पर आपका देहान्त हो जानेके कारण बादके समग्र ग्रंथकी टीकाको श्रीकाहार्यवादी गणी महत्ताने पूर्ण की है। ५. जीतसल्पहचीके प्रणेता श्रीसिद्धसेनगगी हैं। इस वृर्णिके अन्त में आपने सिर्फ अपने नामके अतिरिक्त और कोई उल्लेख नहीं किया है। श्रीजिनभद्रगणि दामाश्रमणकृत ग्रन्थके उपर यह चूणी हानेके कारण इसकी रचना श्रीजिनभद्रगणिके बादकी स्वयंसिद्ध है। इस चूर्णिको टिप्पनककार श्रीश्रीचन्द्रमूरिने चीना से दरशाई है-- नवा श्रीमन्महावीरं परोपकृति हेतवे । जीवकल्प व्याख्या काचित् प्रकाश्यते ॥ १॥ उपरनिर्दिष्ट सान चूगीयोंके अतिरिक्त ने चीयोंके रचपिकानापका पता नहीं मिलता है । तथापि इन चीयों के अवलोकनसे जो हकीकत ध्यानमें आई है इसका यहाँ उनीख कर देता हूं। __ यद्यपि आचाराङ्गचूी और मूत्र कृताङ्गचूगीक रचयिताके नाम का पा नहीं मिला है तो भी आचाराम चूर्णीमें वृर्णिकारने पंद्रह स्थान पर नागार्जुनीय वाचनाका उख किया है, उनसे सात स्थान पर "नांतनागज्जुणिया" इस प्रकार बहुमानदर्शक 'भदन्त'शब्दका प्रयोग किया है, इससे अनुमान होता है कि ये चूर्णिकार नागार्जुनसन्तानीय कोई स्थविर होने चाहिए । सूत्रकृताङ्गचू में जहां जहां नागार्जुगो व वाचनाका उडख मूर्णिकारने किया है वहां सामान्यतया Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001150
Book TitleAgam 44 Chulika 01 Nandi Sutra
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorJindasgani Mahattar, Punyavijay
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2004
Total Pages142
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, G000, G010, & agam_nandisutra
File Size22 MB
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