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________________ (२०) पाक्षिकसूत्रचूर्णि । अन्तः अनुष्टुपभेदेन छंदसां ग्रंथाग्रं चत्वारि शतानि ४०० ॥ पाक्षिकप्रतिक्रमणाची समातेति ।। शुभं भवतु सकल संघस्य । मंगलं महाश्रीः ।। २. उपर जिन बीस चूर्णियोंके आदि-अन्तादि अंशोंके उल्लेख दिये हैं. इनके अवलोकनसे प्रतीत होता है कि-प्रज्ञापनासूत्रके बारहवें शरीरपदकी चर्णि श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत है। आज इसकी कोई स्वतन्त्र हस्तप्रति ज्ञानभंडारोंमें उपलब्ध नहीं है, किन्तु श्रीजिनदासगणि महत्तर और आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिने क्रमशः अपनी अनुयोगद्वारसूत्र उपरकी चूर्णि और लघुवृत्तिमें इस चूर्णिको समग्र भावसे उद्धृत कर दी है, इससे इसका पता चलता है। श्रीजिनभद्रगगि क्षमाश्रमणने प्रज्ञापनासूत्र उपर सम्पूर्ण चूर्णी की हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है । इसका कारण यह है कि प्राचीन जैन ज्ञानभंडारोंमे प्रज्ञापनासूत्रचूर्णीकी कोई हाथपोथी प्राप्त नहीं है। दूसरा यह भी कारण है कि-आचार्य श्रीमलयगिरिने अपनी प्रज्ञपनावृत्तिमें सिर्फ शरीरपदकी वृत्तिके सिवा और कहीं भी चूर्गीपाठका उल्लेख नहीं किया है। अतः ज्ञात होता है कि श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने सिर्फ प्रज्ञापनासूत्रके बारहवें शरीरपद पद पर ही चूर्णी की होगी। आचार्य मलयगिरिने अपनी वृत्तिमें इस चूर्णीका छ स्थान पर उल्लेख किया है। २. नन्दीसूत्रचूर्णी, अनुयोगद्वारचूर्णी और निशीथसूत्रचूर्णीक प्रणेता श्रीजिनदासगणि महत्तर हैं । जो इन चूर्णीयोंके अन्तिम उल्लेखसे निर्विवाद रूपसे ज्ञात होता है। निशीथचूर्णिके प्रारम्भमें आपने अपने विद्यागुरुका शुभनाम श्रीप्रद्युम्न क्षमाश्रमण बतलाया है। संभव है कि आपके दीक्षागुरु भी ये ही हों । इन चूर्गियोकी रचना जिनभद्र गणि क्षमाश्रमणके बादकी है। इसका कारण यह है कि-नन्दीचर्णिमें चर्गिकारने केवलज्ञान-केवलदर्शनविषयक युगपदुपयोगएकोपयोग-क्रमोपयोगकी चर्चा की है एवं स्थान स्थान पर जिनभद्रगणिके विशेषावश्यक भाष्यकी गाथाओंका उल्लेख भी किया है। अनुयोगद्वारचूर्णीमें तो आपने श्रीजिनभद्रगणिकी शरीरपदचूर्गीको सायन्त उद्धृत कर दी है। अतः ये तीनों रचनायें श्रीजिनभद्रगणिके बादकी ही निर्विवाद सिद्ध हैं। ३. दशवैकालिकचूर्णीक कत्ता श्रीअगस्त्यसिंहगगी हैं। ये आचार्य कौटिकगगान्तर्गत श्रीवज्रस्वामीकी शाखामें हुए श्रीऋषिगुप्त क्षमाश्रमणके शिष्य हैं । इन दोनों गुरु-शिष्योंके नाम शाखान्तरवर्ति होनेके कारण पट्टावलीयोंमें पाये नहीं जाते हैं । कल्पसूत्रकी पट्टावल्लीमें जो श्रीऋषिगुप्तका नाम है वे स्थविर आर्यसुस्तिके शिष्य होनेके कारण एवं खुद वज्रस्वामीसे भी पूर्ववती होनेसे श्रीअगस्यसिंहगणिके गुरु ऋषिगुप्तसे भिन्न हैं । कल्पसूत्रको स्थविरावलीका उल्लेख इस प्रकार है थेग्स्स णं अजमुहत्थिस्स वासिटुसगुत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया होत्था । तं जहाथेरे य अग्जरोहण १ जसभद्दे २ मेहगणी ३ य कामिड्ढी ४ । सुद्विय ५ सुप्पडिबुद्धे ६ रक्खिय ७ तह रोहगुत्ते ८ य ॥१॥ इसिगुत्ते ९ सिरिगुत्ते १० गगी य बंभे ११ गणी य तह सोमे १२ । दस दो य गणहरा खलु एए सीसा सुहत्थिस्स ॥ २॥ स्थविर आर्यमुहस्ति श्रीवज्रस्वामीसे पूर्ववर्ती होनेसे ये ऋषिगुप्त स्थविर दशकालिकचूर्णिप्रणेता श्रीअगस्यसिंह के गुरु श्रीऋषिगुम क्षमाश्रमणसे जुदा है, यह स्पष्ट है। आवश्यकचूर्णी, जिसके प्रणेताके नामका कोई पता नहीं है, उसमें तपसंयमके वर्णनप्रसंगमें आवश्यकचूर्णिकारने इस प्रकार दशवकालिकनीका उल्लेख किया हैन. चू२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001150
Book TitleAgam 44 Chulika 01 Nandi Sutra
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorJindasgani Mahattar, Punyavijay
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2004
Total Pages142
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, G000, G010, & agam_nandisutra
File Size22 MB
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