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पंन्यासजी श्रीकल्याणविजयजीमहाराजने अपने 'वीरनिर्वाणसंवत् और जैन कालगणना' निबन्धमें (नागरीप्रचारिणी भाग १० अंक ४) अनेकानेक प्रमाण और युक्ति द्वारा नन्दीसूत्रप्रणेता स्थविर देववाचक और जैन आगमोंकी माथुरी एवं वाल्लभी वाचनाओंको संवादित करनेवाले श्रीदेवर्द्धिगणि क्षमाश्रमगको एक बतलाया है।
नत्यकर्मग्रन्थकार आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरि महाराजने अपनी स्वोपज्ञ वृत्तिमें देवर्दिवाचक, देवर्द्धिक्षमाश्रमण नामके उल्लेखपूर्वक अनेकवार नन्दीसूत्रपाठके उद्धरण दिये हैं, यह भी उन्होंने देववाचक और देवद्धिक्षमाश्रमणको एक व्यक्ति मानके ही दिये हैं। यह भी श्रीकन्यागविजयजी महाराजकी मान्यताको पुष्ट करनेवाला सबूत है। तथापि नन्दीकी स्थविरावलीमें अंतिम स्थविर दुष्यगगि हैं, जिनको नन्दी दृकिारने देववाचकके गुरु दरशाये हैं। तब कल्पसूत्रकी वि. सं० १२४६ में लिखित प्रतिसे ले कर आज पर्यन्तकी प्राचीन-अर्वाचीन ताडपत्रीय एवं कागजको योंमें स्थविरावलिके पाठोंकी कमी वेशीके कारण कोई एक स्थविरका नाम व्यवस्थितरूपस पाया नहीं जाता है। इस कारण इन दोनों स्थविरोंको एक मानना कहां तक उचित है, यह तज्ज्ञ विद्वानोंके लिये विचारणीय है । देववाचक और देवर्द्विक्षमाश्रमण इन नाम और विशेषगउपाधिमें भी अंतर है। साथमें यह भी देखना जरूरी है कि नन्दीसूत्रकी स्थविरावलीमें वायगवंस, वायगपय, वायग, इस प्रकार वायग शब्दका ही प्रयोग मिटता है, दूसरे कोई वादी, क्षमाश्रमग, दिवाकर जैसे पदका प्रयोग नजर नहीं आता है। अगर देववाचकको क्षमाश्रमणकी भी उपाधि होतो तो नन्दीवुर्णिकार जरूर लिखते । जैसे द्वादशारनयचक्रटीकाके प्रणेता सिंहवादी गणि क्षमाश्रमण, विशेषावश्यककी अपूर्ण स्वोपज्ञ टोकाको पूरी करनेवाले कोट्टार्यवादी गणि महत्तर, सन्मति सर्कके प्रणेता वादी सिद्धसनगणी दिवाकर आदि नामोंके साथ दो विशेषण-उपाधियाँ जुडी हुई मिलती हैं इसी तरह देववाचकके लिये भी दो उपाधियांका निर्देश जरूर मिलता। अतः देववाचक और देवद्रिक्षमाश्रमण, ये दोनों एक ही व्यक्ति है या भिन्न, यह प्रश्न अब भी विचारणीय प्रतीत होता है । कल्पसूत्रकी स्थविरावली और नन्दीसूत्रकी स्थविरावलीका मेलझोल कैसे, कितना और कहां तक हो सकता है, यह भी विचारार्ह है ।
वाचकपदकी अपेक्षाकृत प्राचीनता होने पर भी कामसूत्रकी समयसमय पर परिवर्धित स्थविरावलीमें थेर और खमासमग पदका ही निर्देश नजर आता है, यह भी दोनों स्थविर और स्थविरावलीकी विशेषता एवं भिन्नताके विचारका साधन है।
यहाँ पर प्रसंगोपात्त एक बात स्पष्ट करना उचित है कि-भद्रेश्वरमूरिकी कहाव में एक गाथा निम्नप्रकारकी नजर आती है--
वाई य खमासमणे दिवायर वायगे ति एगट्टा । पुचगयं जस्सेसं जिणागमे तम्मिमे नामा ॥ अर्थात-बादी, क्षमाश्रमण, दिवाकर और वाचक, ये एकार्थक-समानार्थक शब्द हैं। जिनागममें जो पूर्वगत शास्त्र हैं उनके शेष अर्थात् अंशोका पारम्परिक ज्ञान जिनके पास है उनके लिये ये पद हैं।
इस गाथासे यह स्पष्ट है कि-इन उपाधियोंवाले आचार्योंके पास पूर्वगतज्ञानकी परंपरा थी। किन्तु आज जैन परम्परामें जो ऐसी मान्यता प्रचलित है कि-इन पदधारक आचार्योंको एक पूर्व आदिका ज्ञान था, यह मान्यता भ्रान्त एवं गलत प्रतीत होती है। कारण यह है कि-अगर आचाराङ्गादि प्राथमिक अंगआगम शीर्णविशीर्ण हो चूके ये, इस दशामें पूर्वश्रुतके अखंड रहनेकी संभावना ही कैसे हो सकती है। स्थविर श्रीदेववाचककी नन्दीसूत्रके सिवा दूसरी कोई कृति उपलब्ध नहीं है ।
चूर्णिकार नन्दीसूत्रचूर्णिके प्रणेता आचार्य श्रीजिनदास गणि महत्तर हैं। सामान्यतया आज यह मान्यता प्रचलित है किजैन गम उपरके भाष्योंके प्रणेता श्रीजिनभद्र गाण क्षमाश्रमण और चूणियोके रचयिता श्रीजिनदास गणि महत्तर
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