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________________ ही हैं, और ऐसे प्राचीन उल्लेख पट्टावली आदिमें पाये भी जाते हैं; किन्तु भाष्य-चूर्णियोंके अवगाहन बाद ये दोनों मान्यताएं गलत प्रतीत हुई हैं। यहाँ पर भाष्यकारोंका विचार अप्रस्तुत है, अतः सिर्फ यहाँ पर जैन आगमोके उपर जो प्राचीन चूर्णियाँ उपलब्ध हैं उन्हीके विषयमें ही विचार किया जाता है। आज जैन आगमोके उपर जो चूर्णिनामक प्राकृतभाषाप्रधान व्याख्याग्रन्थ प्राप्त हैं उनके नाम क्रमश: ये हैं--- १ आचामङ्गचूर्णि २ सूत्रकृताङ्गचूणिं ३ भगवतीचूर्णि ४ जीवाभिगमचूर्णि ५ प्रज्ञापनासूत्रशरीरपदचूर्णि ६ जम्बूद्वीपकरणचूर्णि ७ दशाकल्पचूर्णि ८ कल्पचूर्णि ९ कल्पविशेपचूणि १० व्यवहारसूत्रचूर्णि ११ निशीथमूत्रविशेषचूणि १२ पश्चकल्पचूर्णि १३ जीतकल्पबृहचूर्णि १४ आवश्यकचूर्णि १५ दशकालिकचूर्णि श्रीअगस्त्यसिंहकृता १६ दशकालिकचूर्णि वृद्धविवरणाख्या १७ उत्तराध्ययनचूर्णि १८ नन्दीसूत्रणि १९ अनुयोगद्वारणि २० पाक्षिकचूर्णि। उपर जिन वौस चूर्णियोंके नाम दिये हैं उनका और इनके प्रणेताओंके विषयमें विचार करनेके पूर्व एतद्विषयक चूर्णिग्रन्थों के प्राप्त उल्लेखोंको मैं एकसाथ यहाँ उद्धृत कर देता हूँ, जो भविष्यमें विद्वानों के लिये कायमकी विचारसामग्री बनी रहे । (१) आचारागचूर्णी । अन्तः से हु निरालंबणमप्पतिद्वितो। शेषं तदेव ॥ इति आचारचूर्णी परिसमाया ॥ नमो सुयदेवयाए भगवईए ।। ग्रन्थानम् ८३०० ॥ (२) सूत्रकृताङ्गचूर्णी । अन्तः सदहामि जध सूत्रेति तब्वं सवमिति ॥ नमः सर्वविदे वीराय विगतमोहाय || समाप्तं चेदं सूत्रकृताभिधं द्वितीयमङ्गमिति । भद्रं भवतु श्रीजिनशासनाय । सूगडांगचूर्णिः समाप्ता || ग्रन्थानम् ९५०० ॥ (३) भगवतीचूर्णि - श्रीभगवतीचूर्णिः परिसमातेति ॥ इप्ति भद्रं ॥ सुअदेवयं तु वंदे जीइ पसाएग सिक्खियं नाणं । विइयं पि बतव (बंभ)देवि पसन्नवाणि पगिवयामि || ग्रंथानं ६७०७॥श्री।। (४) जीवाभिगमचूर्णि इस चूर्णीकी प्रति अद्यावधि ज्ञात किसी भंडारमें देखने नहीं आई है। (५) प्रज्ञापनाशरीरपदचूर्णि । अन्तः जमिहं समयविरुद्धं बद्धं बुद्धिविकलेण होजा हि । तं जिगवयगविहन्नू खमिऊगं मे पसोहिंतु ॥ १॥ । सरीरपदस्स चुण्णी जिणभदखमासमणकित्तिया समत्ता । अनुयोगद्वारचूर्णि पत्र ७४ । याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिकृत अनुयोगद्वारलधुवृत्ति पत्र ९९ में भी यही उल्लेख है। (६) जम्बूद्वीपकरणचूणि । अन्तः एवं उवरिल्लभागस्स तेरासियं पउंजियच्वं । विरुवेहबुड्ढीओ आगेयवाओ॥ जंबुद्दीवपण्णत्तिकरगाणं चुण्णी समत्ता ।। (७) दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि । अन्तः जाव णया वि । जाव करणओ-सवेसि पि णयाणं० गाधा ॥ दशानां चूर्णी समाप्ता ।। (८) कल्पचूर्णी आउयवजा उ० गाहा ९९ । वित्थरण जहा पिसेसावस्सगभासे । 'सामित्तं चेव पगडीगं को केवतियं बंधइ ! खवेइ वा केत्तियं को उ? त्ति जहा कम्मपगडीए । एतं पसंगेण गतं । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001150
Book TitleAgam 44 Chulika 01 Nandi Sutra
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorJindasgani Mahattar, Punyavijay
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2004
Total Pages142
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, G000, G010, & agam_nandisutra
File Size22 MB
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