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टिप्पन, इन चारोंका समग्रभावसे उपयोग किया गया है, इतना ही नहीं, किन्तु जहाँ जहाँ नन्दीसूत्रके उदरण, व्याख्यान
आदि आये हैं ऐसे द्वादशारनयचक्र, समवायाङ्गसूत्र एवं भगवतीसूत्रकी अभयदेवीया वृत्ति, विशेषावश्यकमलधारीया वृत्ति, पाक्षिकसूत्रवृत्ति आदि अनेक शास्त्रोंका उपयोग भी किया है, जिसकी प्रतीति इस सम्पादनकी पादटिप्पणियोंको देखनसे होगी।
नन्दीसूत्रकी चूणिके संशोधनके लिये मेरा आधारस्तम्भ जैसलमेरकी प्रति ही है। अगर यह प्रति प्राप्त न होती तो इसका जो गौरवपूर्ण सम्पादन हुआ है, वह शक्य न बनता । संस्कृत टीका निर्माणके बाद चूर्णियोंका अध्ययन कम हो जानेसे प्रायः आज ज्ञानभंडारोंमें जो जो आगमिक या आगमेतर शास्त्रोके चूर्णिग्रन्थोकी हस्तप्रतियाँ हैं, वे सभी अशद्धिभाण्डागारस्वरूप ही हो गई हैं। इतनी बात जरूर है कि-ज्यों ज्यों प्रति प्राचीन त्यो त्यो अशुद्धियाँ कम रहती हैं। किन्त एक ही युगकी प्रतियों के लिये यह अनुभव हुआ है कि अगर वह प्रति प्राचीन प्रतिकी या भिन्न प्रदेशस्थित प्रतिकी नकल न हो कर, उसी युगकी या प्रदेशकी उत्तरोत्तर नकलकी नकल हो, तब तो उत्तरोत्तर अशुद्धियोंकी वृद्धि ही होती रही है। इतना ही नहीं पंक्तियाँकी पंक्तियाँ और सन्दर्भ के सन्दर्भ गायब हो गये हैं। अस्तु, मेरेको जैसलमेरकी प्रति मीली, यह मैं सिर्फ अपना ही नहीं, साथमें सब शास्त्रपाठी जैन गीतार्थ मुनिगण एवं विद्वानोंका भी सौभाग्य समझता हूं। ___ अनेक आगमोंकी चूर्णि, वृत्ति आदिके अवलोकनसे प्रतीत हुआ है कि-अगर प्राचीन एवं अलग अलग कुलकी प्रतियाँ प्राप्त न हो तो मुद्रणादिमें प्रायः सैंकडों अशुद्धियाँ पाठपरावृत्तियाँ आदि रहनेका सम्भव रहता है, इतना ही नहीं सन्दर्भके सन्दर्भ छूट जाते हैं । विद्वान् संशोधकोंके ध्यानमें लानेके लिये मैं यहाँ एक बातको उद्धृत करता हूं
___ अनुयोगद्वारसूत्रकी चूर्णिका संशोधन मैंने पाटन-ज्ञानभंडारकी दो प्राचीन ताडपत्रीय हस्तप्रतियाँ और ग्वंभातके श्रीशान्तिनाथ ज्ञानभंडारकी दो ताडपत्रीय प्रतियाँ, एवं चार प्रतियोंके आधारसे सुचारुतया कर लिया । कुछ शंकास्थान होने पर भी दिलमें विश्वास हो गया था कि-एकंदर संशोधन अच्छा हो गया है। किन्तु जब जैसलमेर जानेका मोका मिला, और वहकि ज्ञानभंडारकी प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिसे तुलना की तो कितने ही शङ्कास्थान दूर हुए, इतना ही नहीं, परन्तु अलग अलग स्थानमें हो कर दश-बारह पंक्तियाँ जितना दूसरे कुल की प्रतियोंमें छूट गया हुआ नया पाठ प्राप्त हुआ और अनेकानेक अशुद्धियां भी दूर हुई। यह प्राचीन प्राचीनतम एवं अलग अलग कुलकी प्रतियोंके उपयोगका साफल्य है।
- प्रसंगवश यहाँ यह कहना भी उचित है कि-इस नन्दीसूत्रचूर्गीक संशोधन एवं सम्पादनमें साद्यन्त उपयोगमें लाई गई प्रतियोंके अलावा दूसरी अनेक प्रतियाँ मैंने समय-समय पर देखी हैं, इससे ज्ञात हुआ है कि-जैसलमेरकी प्रतिकी अपेक्षा इन प्रतियोंमें त द ध आदि वर्णोके प्रयोग विपुल प्रमाणमें नजर आये हैं।
नन्दीसूत्रके प्रणेता नन्दीसूत्रकारने नन्दीसूत्रमें कहीं भी अपने नामका निर्देश नहीं किया है, किन्तु चूर्णिकार श्रीजिनदासगणि महत्तरने अपनी चूर्णिमें सूत्रकारका नाम निर्दिष्ट किया है, जो इस प्रकार है
" एवं कतमंगलोवयारो थेरावलिकमे य दंसिए अरिहेमु य दंसितेसु दूसगणिसीसो देववायगो साहुजणहितढाए इणमाह" [पत्र १३]
इस उल्लेखद्वारा चूर्णिकारने नन्दीसूत्रप्रणेता स्थविर श्रीदेववाचक हैं-ऐसा बतलाया है। आचार्य श्रीहरिभद्रसूरि एवं आचार्य श्रीमलयगिरिसूरिने भी इसी आशयका उल्लेख अपनी अपनी टीकामें किया है, किन्तु इनका मूल आधार चूर्णिकारका उल्लेख ही है। चूर्णिकारके उल्लेखसे ही ज्ञात होता है कि-नन्दीसूत्रके प्रणेता नन्दिसूत्रस्थविरावलिगत अंतिमस्थविर श्रीदुष्यगणिके शिष्य श्रीदेववाचक हैं।
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