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जे. खं० ल. शु०, ये चार प्रतियाँ संशोधित प्रतियाँ हैं। इनमें भी जे० प्रतिका संशोधन खरतरगच्छीय गीतार्य आचार्य श्रीजिनभद्रसरिने किया है, जिसमें आपने नन्दीसूत्रके प्रक्षिप्त पाठादिके विषयमें स्थान स्थान पर टिप्पणीयां की हैं, जो हमने हमारे इस प्रकाशनमें दी हैं, देखो पृ. ५ टि. १०, पृ. ८ टि. १०, पृ. १० टि. ७, पृ. ११ टि. ११, पृ. १२ टि. ५ इत्यादि।
शु० प्रति अधिकतर अंशमें खं० प्रतिसे मीलनीझुलती होने पर भी जुदा कुलको मालुम होती है। इसमें स्थविरावलिकी प्रक्षिप्त मानी जानेवाली गाथायें नहीं हैं, देखो पृ.८ टि. १०, पृ.१० टि. ७, पृ. ११ टि. ११ । लदे परिपत्रमें जो तीन गाथायें प्रक्षिप्त हैं वे भी इस प्रतिमें नहीं हैं, देखो पृ. १२ टि. ५। इसी प्रकार मनःपर्यवज्ञानके द्रव्यक्षेत्रादिविषयक सूत्रपाठमें जो सूत्रपाठ चूर्णीकार एवं हरिभद्रसूरिको अभिप्रेत है वह इस प्रतिसे पाया गया है, देखो पृ. २३ टि. ३। ऐसी जो जो अन्यान्य विशेषतायें इस प्रतिको हैं उनका पादटिप्पणीयोंमें उल्लेख कर दिया है। यहां पर परीक्षण एवं अभ्यासकी दृष्टिसे
नरीक्षण करनेवाले विद्वानोंसे प्रार्थना है कि इस मुद्रणमें पृ. १० टि. ७, पृ.११ टि.११ आदि दो-चार स्थानोंमें P प्रतिका निर्देश किया है वह P प्रति कौनसी ! और किस भंडारकी थी? यह मेरी स्मृतिसे चला गया है। फिर भी यहाँ इतनी सूचना कर देता हूँ कि-शु० प्रति कुछ अंशमें इस Pप्रतिसे मीलतीझुलती प्रति है। अर्थात् जैसेगोविंदाणं पि णमो० तथा तत्तो य भूयदिन्ने० ये दो गाथायें P प्रतिमें नहीं हैं इसी तरह शु० प्रतिमें भी उपलब्ध नहीं हैं, देखो पृ. १० टि. ७ । यद्यपि प्रस्तुत मुद्रणमें इस स्थानमें Pप्रतिके साथ शु० प्रतिका उल्लेख छुट गया है किन्तु भंडारमें जा कर शु० प्रतिको पुनः देखके निश्चित किया है कि गोविंदाणं पि णमो० तथा तत्तो य भूयदिने० ये दोनों गाथायें शु० प्रतिमें भी नहीं है । एवं-वंदामि अजधम्म० तथा वंदामि अजरविवय० ये दो गाथायें शु० प्रतिमें नहीं हैं, देखो पृ. ८ टि. १०। चूर्णी एवं टीकाओंमें इन चार गाथाओंका उल्लेख या व्याख्यान नहीं है। नन्दीसूत्रकी ऐसी और भी प्रति मेरे देखनेमें आई है, जिसमें ये गाथायें नहीं हैं। फिर भी नन्दीसूत्रको प्राचीन ताडपत्रीय प्रतियोंमें और दूसरी बहुतसी पंद्रहवीं-सोलहवीं शती में लिखित कागजकी प्रतियोंमें ये गाथायें अवश्य ही उपलब्ध हैं। यहां प्रश्न होता है कि-चूर्णिकार और टीकाकारोंने इन गाथाओका स्पर्श तक क्यों नहीं किया है ।
जे. और मो० प्रतिकी विशेषता यह है कि इसमें प्रायः लुप्तव्यञ्जनके स्थानमें अस्पष्ट यश्रुतिके प्रयोग न होकर केवल अ और आ की श्रुतिवाले प्रयोग ही हैं, जो पूज्य श्रीसागरानन्दमूरिमहाराजके मुद्रणमें नजर आते हैं। ये दो प्रतियाँ उस परम्पराकी हैं, जिसमें अस्पष्ट यश्रुतिके प्रयोग कम हैं। आदि ण प्रयोगके स्थानमें नका प्रयोग मुख्य है। जैसे किनाण नाह नमंसिय नियम नंदिघोस निग्गय नाल निम्मल सुयनिस्सिय आदि ।
___ डे०२० प्रतियाँ नप्रयोगके विषयमें जे०मो० प्रतियोंके समान हैं, किन्तु इन प्रतियोंमें अस्पष्ट यश्रुतिके प्रयोग हो प्रयुक्त हैं।
खं०सं० प्रतियोंमें णप्रयोगकी प्रधानता है। किन्तु सं० प्रतिमें फुरन्त महन्त समन्ता आदि परसवर्णके प्रयोग नजर आते हैं, इतना खं० और सं० प्रतिका भेद है। इसी तरह सं० और खं० प्रतिका अन्तर यह है कि खं० प्रतिमें चडुलियम्वा पदीवम्बा आदि जैसे प्रयोग भी प्रयुक्त दिखाई देते हैं देखो पृ. १६ टि० ३।।
उपर आठ प्रतियों का परिचय दिया गया है, जो आज उपलब्ध प्रतियों में प्राचीन प्रतियाँ हैं। इतनी प्रतियाँ एकत्र करने पर भी चूर्णिकार एवं वृत्तिकारसम्मत ऐसे अनेक पाठ हैं जो इन इतनी प्रतियोंसे भी प्राप्त नहीं हुए हैं। इनका सूचन पादटिप्पणियों में यथास्थान किया है।
इस नन्दीसूत्रके संशोधन. पाठ, पाठभेद, पाठोंकी कमीबेशीके निर्णयके लिये चूणि, हरिभद्रवृत्ति, मलयगिरिवृत्ति, श्रीचन्द्रीय
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