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________________ डे० प्रति-यह प्रति अहमदाबादके डेला उपाश्रयके ज्ञानभंडारकी है। इसमें मलयगिरीया टीका भी पंचपाठरूपसे लिखित है । साथमें अनुज्ञानन्दी भी है । कागज पर लिखी हुई यह प्रति अनुमान सत्रहवीं सदीमें लिखी मालूम होती है । ल० प्रति-यह प्रति अहमदाबाद लवारकी पोलके उपाश्रयके ज्ञानभंडारकी है। इसकी पत्रसंख्या ३५ हैं । हरेक पत्रमें नव पंक्तियाँ हैं । हरेक पंक्ति में ३१ से ४२ अक्षर लिखे हैं। प्रतिकी लिपि सुन्दरतम है। अक्षर मोटे हैं। कागज पर लिखी हुई इस प्रतिके अंतमें लेखककी पुष्पिका इस प्रकार है नन्दी सम्मत्ता ॥छ। सं. १४८५ वर्षे फाल्गुन सुदि ७ शनी श्रीभीमपल्लीय....[अक्षर बीगाड दिये हैं। श्रीः ॥छ।। शुभं भवतु ॥छ।।। इस पुष्पिकामें जो अक्षर बिगाड दिये हैं उनके स्थानमें बहार इस प्रकार नये अक्षर लिखे हैंसाह श्रीवच्छासुत साह सहिसकस्य स्वपुण्यार्थ पुस्तकभंडारे कारापिता मुत वर्धमानपुस्तकपरिपालनार्थ ॥ छ । मो० प्रति—यह प्रति पाटन-श्रीहेमचंद्राचार्य जैनज्ञानमंदिर में स्थित मोदी ज्ञानभंडारकी है। यह प्रति विक्रमकी सोलहवीं सदीमें लिखी हुई है। शु० प्रति—यह प्रति : श्रीहेमचन्द्राचार्यजैनज्ञानमंदिरमें स्थित शुभवीरजैनज्ञानभंडारकी है । प्रति प्रायः शुद्ध है। प्रति अनुमान सत्रहवीं सदीके उत्तरार्द्ध में लिखी प्रतीत होती है । मु० प्रति—यह प्रति आगमोद्धारक श्रीसागरानन्दसूरिवग्सम्पादित श्रीमलयगिरिकृतटीकायुक्त है । जो आपने आगमवाचनाके समय सम्पादित की है। यह आवृत्ति वि. सं. १९७३में आगमोदयसमिति-सुरतकी ओरसे प्रकाशित हुई है। चूर्णीकी प्रतियाँ जे० प्रति—यह प्रति जेसलमेर किलेमें स्थित श्रीजिनभद्रीय ताडपत्रीय जैन ज्ञानभंडारकी ताडपत्रीय प्रति है। इसका क्रमाङ्क ४१० है। इस क्रमांकमें तीन ग्रन्थ हैं-१. दशवकालिक अगस्त्यसिंहीया चूर्णी पत्र १८४ । २. नन्दीसूत्रचूर्णी पत्र १८५-२२३ । ३. अनुयोगद्वारसूत्रचूर्णी पत्र १२४-२७५ । इनमेंसे नन्दीचूर्णी और अनुयोगद्वारचूर्णी, ये दोनों चूर्णीयाँ किसी गीतार्थकी संशोधित हैं। प्रतिकी लंबाई-चौडाई २५४२॥ इनकी है। प्रतिके अंतमें लेखनसंवत् या लेखककीपुष्पिका नहीं है । तथापि प्रतिका रंग-ढंग देखनेसे प्रतीत होता है कि-यह प्रति तेरहवीं सदीमें लिखित है । प्रति शुद्धप्राय है। आ० प्रति—यह प्रति आगमोद्धारकजी श्रीसागरानन्दसूरिमहाराजसम्पादित मुद्रित प्रति है। जिसका प्रकाशन श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था-रतलामकी ओरसे हुआ है। पूज्यश्रीको इसकी कोई अच्छी प्रति न मीलनेके कारण यह बहुत अशुद्ध छपी है । फिर भी एक प्रत्यन्तरकी तोरसे हमारे संशोधनमें यह आवृत्ति काममें ही आई है। दा० प्रति-यह प्रति जिनागमज्ञ पूज्य श्रीविजयदानसूरिमहागाससम्पादित मुद्रित प्रति है। जो भाई हीरालालके द्वारा प्रकाशित है। इसमें भी काफी अशुद्धियाँ हैं। तथापि पूज्य सागरानन्दसूरिम० की आवृत्तिकी अपेक्षा यह कुछ अच्छी अ चर्णिके सम्पादन और संशोधनके समय पाटन-श्रीहेमचन्द्राचार्यजैनज्ञानमंदिरकी एक प्रति और श्रीलालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरकी प्रतिको भी सामने रक्खी थी। ये दोनों प्रतियां क्रमशः सोलहवीं और सत्रहवीं सदीमें लिखी हुई प्रतियां हैं और अशुद्धिभरपूर प्रतियाँ हैं । तथापि शुद्ध पाठोंके निर्णयमें ये भी सहायक हुई है। इस चूर्णीके संशोधनमें हमारे लिये मुख्य आधारस्तम्भ जे० प्रति ही है, जो अतीव शुद्ध प्रति है। सूत्रप्रतियोंकी विशेषता सं० डे० मो०, ये तीन प्रतियोंका प्रतिलेखनके बाद किसी विद्वानने संशोधन नहीं किया है। Jain Education Intemational Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001150
Book TitleAgam 44 Chulika 01 Nandi Sutra
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorJindasgani Mahattar, Punyavijay
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2004
Total Pages142
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, G000, G010, & agam_nandisutra
File Size22 MB
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