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________________ ३६ प्रमाणप्रमेयकलिका शिष्य आदिको भी व्यवस्था नहीं बनती है । जिस चित्तक्षणने हिंसाका अभिप्राय किया, उसने हिंसा नहीं की, किसी दूसरे ही चिन्तक्षणने हिंसा की और जिसने हिंसा की उसे हिंसाका फल प्राप्त नहीं हुआ, किसी तीसरे चित्तक्षणको ही वह प्राप्त हुआ । इस तरह वस्तुको सर्वथा क्षणिक माननेमें 'हिंसा करनेवाले को ही हिंसा - फल प्राप्त होनेका' लोक-विश्रुत नियम नहीं बन सकता है । दूसरे, प्राणनाशका नाम हिंसा है और नाशको अहेतुक स्वीकार किया गया है । ऐसी स्थितिमें किसीको हिंसक और किसीको हिंस्य नहीं माना जा सकता है । इसी तरह एक ही चित्तक्षणके बन्ध तथा मोक्ष भी नहीं बनते हैं | आचार्य और शिष्यका सम्बन्ध भी क्षणिकवादमें असम्भव है । प्रथम क्षण में जिस चित्तक्षणने किसीसे पढ़ा वह द्वितीय क्षण में निरन्वय विनष्ट हो जानेसे न शिष्य बन सकेगा और न पढ़ानेवाला उसका आचार्य हो सकेगा । इस तरह क्षणिकवादमें कोई भी तत्त्व व्यवस्था उपपन्न नहीं होती । जिन बहिरर्थ- परमाणुओं अथवा संवित्परमाणुओंको विशेष एवं स्वलक्षण कहा गया है वे न प्रत्यक्षसे सिद्ध हैं और न अनुमानादिसे प्रतीत होते हैं । स्थिर, स्थूलादि नित्यानित्य और द्रव्य-पर्यायरूप वस्तु ही प्रत्यक्षादिसे प्रतीत होती है । सामान्य - निरपेक्ष विशेष कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता । वृक्षत्वसहित शिशपादि व्यक्तियों एवं गोत्वादिसहित खण्ड-मुण्डादि गवादि " १. ' हिनस्त्यनभिसंधातृ न हिनस्त्यभिसन्धिमत् । बद्ध्यते तद्द्वयापेतं चित्तं बद्धं न मुच्यते ॥ श्रहेतुकत्वान्नाशस्य हिंसाहेतुर्न हिंसकः । चित्तसन्ततिनाशश्च मोक्षो नाष्टाङ्गहेतुकः ॥ ' -आप्तमी० २. 'न शास्तृ - शिष्यादि-विधिव्यवस्था ।" Jain Education International ० का० ५१,५२ - युक्त्यनु० का ० १७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001146
Book TitlePramanprameykalika
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size7 MB
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