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प्रस्तावना
व्यक्तियों का हमें भान होता है । नरेन्द्रसेनने बौद्धोंके इस विशेषवादको सबलता के साथ आलोचना की है और कुमारिलकी 'सामान्यरहितत्वेन विशेषास्तद्वदेव हि' इस युक्तिद्वारा उसे खरविणाणकी तरह अवस्तु सिद्ध किया है | अतः बौद्ध - परिकल्पित विशेष भी प्रमेय अर्थात् प्रमाण - विषय नहीं है । प्रमाणका विषय सामान्य विशेषात्मक वस्तु है ।
(इ) सामान्यविशेषोभय- परीक्षा :
सामान्य विशेषोभय वादी वैशेषिक का पूर्व पक्ष
वैशेषिकों की मान्यता है कि केवल सामान्य अथवा केवल विशेष प्रमाणका विषय - प्रमेय-वस्तु नहीं है, किन्तु दोनों स्वतन्त्र - परस्परनिरपेक्ष सामान्य और विशेष प्रमाणका विषय अर्थात् वस्तु हैं । उनका कहना है कि द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये छह ही भाव
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सर्वथा भिन्न हैं;
पदार्थ हैं और ये एक दूसरे से क्योंकि इनका अलग-अलग प्रत्यय होता है । 'द्रव्यम्' ऐसा प्रत्यय होने से द्रव्य-पदार्थ, 'गुण' ऐसी प्रतीति होनेसे गुण-पदार्थ, 'कर्म' ऐसा ज्ञान होने से कर्म - पदार्थ, 'सामान्यम्' इस प्रत्ययसे सामान्य-पदार्थ, 'विशेष:' इस प्रत्यय से विशेष पदार्थ और 'इहेदम्' - ' इसमें यह ' इस प्रकारके प्रत्यय से समवाय-पदार्थ सिद्ध होते हैं । इस प्रत्ययभेदके अतिरिक्त सबका लक्षण भी भिन्न-भिन्न है । द्रव्य उसे कहा गया है जो गुणवाला, क्रियावाला और समवायिकारण है । गुण वह है जो द्रव्यके आश्रय रहता है और स्वयं निर्गुण एवं निष्क्रिय है । उत्क्षेपणादि परिस्पन्दनरूप क्रियाका नाम कर्म है । अनेक व्यक्तियों में रहने वाला सामान्य है । नित्य द्रव्योंमें रहने वाला तथा उनमें
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१. 'अभाव' नामका एक सातवाँ पदार्थ भी वैशेषिकोंने स्वीकार किया है, किन्तु उसका ज्ञान निःश्रेयसका कारण न होनेसे उसे न सामान्यकी संज्ञा प्राप्त है और न विशेषकी । अतः उसका उल्लेख प्रासङ्गिक है ।
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