SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना ३५ साथ स्त्रीका और जिस स्त्रीके साथ पुरुषका वैवाहिक सम्बन्ध हुआ था, उनका द्वितीय क्षणमें अभाव हो जानेसे न तो स्त्री 'यह मेरा पति है' और न पुरुष 'यह मेरी स्त्री है' का व्यपदेश कर सकेंगे। इस क्षणिकवादमें सबसे बड़ा दोष यह है कि निरन्वय नाशशील क्षणोंमें कार्यकारणभाव भी नहीं बनता है। कारण उसे माना जाता है जिसके होनेपर कार्य उत्पन्न होता है और कार्य वह कहा जाता है जो कारणव्यापारके बाद पैदा होता है। बौद्ध पूर्वक्षणको कारण और उत्तरक्षणको कार्य मानते हैं । परन्तु पूर्वक्षण जबतक रहता है तबतक उत्तरक्षण उत्पन्न नहीं होता। पूर्वक्षणके निरन्वय विनष्ट हो जानेपर ही उत्तरक्षण उत्पन्न होता है और विनष्ट पूर्वक्षण कारण हो नहीं सकता, क्योंकि वह है ही नहीं, चिरतर अतीत क्षणोंमें जैसे कारणता नहीं है। इसी तरह उत्तरक्षण पूर्वक्षणका कार्य नहीं हो सकता, क्योंकि वह असत् है । अन्यथा, आकाशपुष्प, खरविषाण आदि असतोंकी भी उत्पत्तिका प्रसङ्ग आवेगा। दूसरे, कार्यको असत् होनेपर उपादानका नियम नहीं बन सकता । जिस किसी अभावसे जिस किसी भी कार्यकी उत्पत्ति होने लगेगी। क्षणिकवादमें हिंसा, हिंसा-फल, हिंस्य, हिंसक, बन्ध, मोक्ष और आचार्य १. 'निरन्वयक्षणिकत्वे कारणस्यैवासम्भवात् । तथा हि-न विनष्टं कारणम् , असत्त्वात् , चिरतरातीतवत् । न हि समर्थेऽस्मिन् सति स्वयमनुत्पित्सोः पश्चाद्भवतस्तत्कार्यत्वं समनन्तरत्वं वा, नित्यवत् । ...' —अष्टस० पृ० १८२ तथा प्राप्तमी० का० ४३ । २. 'यद्यसत् सर्वथा कार्य तन्माजनि खपुष्पवत् । मोपादाननियमोऽभून्माऽऽश्वासः कार्यजन्मनि ॥' -प्राप्तमी० का० ४२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001146
Book TitlePramanprameykalika
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy