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प्रमाणप्रमेयकलिका
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होती है । 'रत्नावली' का एक-एक मणि यदि सर्वथा अलग-अलग हो और उनमें अनस्यूतरूपमें सूतका सम्बन्ध न हो तो उन्हें 'रत्नावली' ( माला या हार) नहीं कहा जा सकता। उसी तरह एक-एक क्षण अलग-अलग हों और उनमें अन्वयि द्रव्य न हो तो उन्हें 'वस्तु' संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकती । सन्तान, समुदाय, साधर्म्य, प्रेत्यभाव ये सब एकत्व ( द्रव्य ) के अभाव में सम्भव नहीं हैं । क्षणोंमें जब एकत्वान्वय सर्वथा है ही नहीं, तो स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, दत्तग्रहादिव्यवहार, स्वपति, स्वजाया आदि व्यपदेश उनमें कैसे बन सकते हैं ? जिस चित्तक्षणने किसी चित्तक्षणको कुछ उधार दिया था वह तो नष्ट हो गया, दिये हुएका वापिसी ग्रहण कौन करेगा ? जिस पति के
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१. 'जहऽणेय - लक्खण-गुणा वेरुलियाई मणी विसंजुत्ता | रयणावलि - ववएसं न लहंति महग्घमुल्ला वि ॥ जह पुण ते चेव मणी जहागुणविसेस भागपडिबद्धा । 'रयणावलि' त्ति मण्णइ जहंति पडिक्कसण्णाउ ॥ तह सच्चे जहाणुरूवविणिउत्तवत्तन्वा । ण विसेसण्णाओ ॥'
णयवाया
सम्म सणस
लहंति
— सन्मति ० १ - २२, २४, २५ ।
तथा इसीके लिए देखिए, वरांगचरित २६–६१, ६२,६३। २. ‘सन्तानः समुदायश्च साधर्म्य च निरङ्कुशः । प्रेत्यभावश्च तत्सर्वं न स्यादेकत्यनिह्नवे ॥ '
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- आप्तमी० का० २९ ।
३. 'प्रतिक्षणं भङ्गिषु तत्पृथक्त्वान्न मातृ-घाती स्वपतिः स्वजाया । दत्तग्रहो नाधिगत-स्मृतिनं न क्त्वार्थसत्यं न कुलं न जातिः ॥ ' —युक्त्यनु० १० का० १६ | तथा देखिए, आप्तमी० का० ४१ और युक्त्यनु० का० ११, १२, १३, १४, १५, १७ ।
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