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प्रस्तावना
उदरमें समा जायेंगे । यदि एक देशसे वह संसर्ग हो तो छह दिशाओंसे छह परमाणुओं द्वारा एक परमाणुके साथ सम्बन्ध होनेपर उस परमाणुके छह अंश कल्पना करना पड़ेंगे। अतः केवल असंसृष्ट परमाणु-पुञ्ज ही निर्विकल्पक प्रत्यक्षका विषय है। अवयवी या स्कन्धादि नहीं ।
यह परमाणु-पुञ्ज क्षणिक है, क्योंकि अर्थक्रिया वस्तुका लक्षण है और यह जिसमें सम्भव है वही परमार्थसत् है । यतः नित्य और एकरस वस्तुमें यह अर्थक्रिया न तो क्रमसे सम्भव है और न युगपत् । अतः अर्थक्रियाके न बन सकनेके कारण कोई भी वस्तु नित्य और एकस्वभाव नहीं है, अपितु क्षणिक और नानास्वभाव है। तथा अपनी सामग्रीके अनुसार कार्योत्पादक है।
सांख्योंने जिस तरह जोव या चेतनको 'पुरुष' नाम दिया है और उसे अपरिणामी नित्य स्वीकार किया है, ठोक इसके विपरीत बौद्धोंने 'जीव' को 'चित्त' कहा है और उसे प्रतिक्षण विनश्वर एवं नानाक्षणात्मक माना है। ये चित्तक्षण परस्पर भिन्न हैं। उनमें इतना ही सम्बन्ध है कि पूर्व चित्तक्षण कारण है और उत्तर चित्तक्षण कार्य है। इनकी सन्तति अथवा धाराका प्रवाह अनवरत चालू रहता है। और तो क्या, चित्तक्षणोंकी यह परम्परा निर्वाण अवस्थामें भी विद्यमान रहती है। अन्तर इतना ही है कि संसार अवस्थामें वह सास्रव रहती है और निर्वाणमें वह निरास्रव हो जाती है। इस तरह सासव चित्तसन्तति संसार है और निरास्रव चित्तसन्तति मोक्ष है। प्रदीपके निर्वाणकी तरह चित्तका निर्वाण होता है। __ वस्तुको सर्वथा भेदरूप स्वीकार करनेसे बौद्धोंका यह मत विशेषकान्त, भेदैकान्त, अनित्यत्वकान्त और विशेषवादके रूपमें प्रख्यात है।
जैन दार्शनिकोंने बौद्धोंके इस मतपर पर्याप्त और विस्तृत ऊहापोह किया है और उन्हें यह मत भी दोषपूर्ण प्रतीत हुआ है। जैसा कि हम
सांख्य-मतकी मीमांसामें देख चुके हैं कि वस्तु न सर्वथा उत्तर पक्ष
एक है और न सर्वथा नित्य है उसी तरह वह न सर्वथा पृथक्-पृथक् अनेक है और न सर्वथा क्षणिक ही प्रतीत
जैनोंका
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